संसार के सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं. ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मात्र शरीर निर्वाह जितनी बुद्धि और सुविधा दी तथा मनुष्य को बोलने, सोचने, पढ़ने, कमाने, बनाने आदि की अनेकों विभूतियां दी हैं. अन्य प्राणियों की और मनुष्यों की स्थिति की तुलना करने पर जमीन-आसमान जैसा अंतर दिखता है. इसमें पक्षपात और अनीति का आक्षेप ईश्वर पर लगता है. जब सामान्य प्राणी अपनी संतान को समान स्नेह सहयोग देते हैं, तो फिर ईश्वर ने इतना अंतर किसलिए रखा? इसे ऐसे समझते हैं.
मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी ज्येष्ठ पुत्र के रूप में सृजा गया है. उसके कंधों पर सृष्टि को अधिक सुंदर, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है. इसके लिए उसे विशिष्ट साधन उसी प्रयोजन के लिए अमानत के रूप में दिये गये हैं. मंत्रियों को सामान्य कर्मचारियों की तुलना में सरकार अधिक सुविधा साधन इसलिए देती है कि उनकी सहायता से वे अपने विशिष्ट उत्तरदायित्वों का निर्वाह सुविधापूर्वक कर सकें.
ये सुविधाएं उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं वरन जनसेवा के लिए दी जाती हैं. इसी प्रकार मनुष्य के पास सामान्य प्राणियों को उपलब्ध शरीर निर्वाह भर के साधनों से अतिरिक्त जो कुछ भी श्रम, समय, बुद्धि, वैभव, धन, प्रभाव, प्रतिभा आदि विभूतियां मिली हैं, वह सभी लोकोपयोगी प्रयोजनों के लिए मिली हुई सार्वजनिक संपत्ति हैं.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य