हमारे देश के महान पुरुषों में से एक महर्षि वशिष्ठ का कथन है कि शारीरिक या मानसिक किसी भी तरह की परेशानी का समाधान हमें ज्ञान के द्वारा ही मिल सकती है. इस समाधान तक पहुंचने को ही मोक्ष कहते हैं. मोक्ष यानी दुखों का अंत या अभाव ही आनंद है. अर्थात् मोक्ष और आनंद एक-दूसरे के पर्याय हैं.
अधिकतर यही देखा जाता है कि लोग हंसते, बोलते, खेलते, मनोरंजन करते, नृत्य-संगीत और काव्य कलाओं का आनंद लेते, सत्संगों में आमोद-विनोद करते प्रसन्न रहते हैं, तो क्या उनकी इस स्थिति को मोक्ष कहा जा सकता है? बिल्कुल भी नहीं. मोक्ष का आनंद स्थायी, स्थिर, अक्षय होता है. वह न कहीं से आता है, न कहीं जाता है. न किसी कारण से उत्पन्न होता है और न किसी कारण से नष्ट होता है. वह संपूर्ण रूप में मिलता है, अनुभूत और सदा-सर्वदा ही बना रहता है.
लौकिक आनंद में यह विशेषताएं नहीं होतीं. उनकी प्राप्ति के लिए कारण और साधन की आवश्यकता होती है. लौकिक आंनद की और अधिक पाने की प्यास बनी रहती है. उससे न तृप्ति मिलती है न संतोष. जिस अनुभूति में अतृप्ति, असंतोष और तृष्णा बनी रहे, वह आनंद कैसा? लौकिक आनंद के कितने ही सघन वातावरण में क्यों न बैठे हों, एक छोटा सा अप्रिय समाचार उसे समूल नष्ट कर देता है. लौकिक आनंद और मोक्ष आनंद की तुलना ही नहीं की जा सकती. लौकिक आनंद की अनुभूति प्रवंचना या मृगतृष्णा के समान होती है. जबकि मोक्ष आनंद केवल आत्मिक होता है.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य