अध्यात्म के लक्ष्य हैं-आत्मकल्याण, पूर्णता के परमात्मा के स्तर तक पहुंचना. इसके लिए चार चरण निर्धारित हैं- आत्मचिंतन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण व आत्मविकास. आत्मचिंतन अर्थात् अपने अजर-अमर शुद्ध चेतन स्वरूप का भान. आत्मसुधार अर्थात् सुसंपन्न स्थिति को विपन्नता में बदल देनेवाली विकृतियों की समुचित जानकारी.
आत्मनिर्माण अर्थात् विकृतियों को निरस्त कर उनके स्थान पर सद्भावानाओं और सत्प्रवृत्तियों की, उत्कृष्ट कर्तृत्व और आदर्श कर्त्तव्य स्थापित करने का सुनिश्चित संकल्प व साहसिक प्रयास. आत्मविकास यानी अधिकाधिक संयम, तप, त्याग-बलिदान आनंदानुभूति. इन चरणों में आत्मकल्याण का लक्ष्य प्राप्त होता है. आंतरिक समाधान, संतोष, आनंद, उल्लास की स्थिति अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उपार्जित संपदाओं से होती है. नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने का अवसर इसी पथ पर चलने पर मिलता है.
महामानव, देवदूत, ऋषिकल्प स्थिति प्राप्त करने का यही आधार है. जीवन लक्ष्य की पूर्ति इन्हीं प्रयत्नों से संभव है. आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर करनेवाले अध्यात्म विधि विज्ञान की दो धाराएं हैं- आत्मदर्शन व विश्व दर्शन. इन्हें आत्मबोध व तत्वबोध भी कहते हैं. आत्मबोध के अंतर्गत आत्मसत्ता के स्वरूप, लक्ष्य, धर्म, चिंतन एवं कर्त्तव्य की वस्तुस्थिति समझी-समझायी जाती है. तत्त्वबोध में शरीर व मन के साथ आत्मा के पारस्परिक संबंधों व कर्त्तव्यों का निरूपण होता है. अध्यात्म जगत की यही दो धाराएं पवित्र गंगा-यमुना के संगम की तरह हैं.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य