आज के दिन 1931 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के प्रधान सेनापति क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आजाद पार्क) में गोरे शासकों की पुलिस द्वारा अचानक घेर लिये जाने पर भरपूर मुकाबले के बाद खुद को शहीद कर लिया था. व्यापक रोष और क्षोभ से डरी हुई पुलिस ने शहर के रसूलाबाद श्मशानघाट में उनका गुपचुप अंतिम संस्कार कर दिया, तो इसकी भनक लगते ही देशाभिमानी युवक उनकी अस्थियां चुनने वहां पहुंच गये थे. फिर उन्होंने विशाल जुलूस निकाला था, जिसे संबोधित करने वालों में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के सह-संस्थापक शचींद्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल भी थीं. आजाद की शहादत के कई दशकों बाद भी उनके शहादत दिवस पर उक्त पार्क उनकी स्मृतियों से जीवंत हो उठता है.
आजाद के जीवट की ओर देखें, तो वे काकोरी के ऐतिहासिक ट्रेन एक्शन कांड में शामिल रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां, रौशन सिंह और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी जैसे साथी क्रांतिकारियों की शहादत के बाद भी निराश नहीं ही हुए थे. क्रूर दमन के बीच 1928 में उन्होंने अपने संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़ा और उसके कमांडर-इन-चीफ बने. तब उन्होंने ऐलान किया था कि ‘हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत.’ जाहिर है कि स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष संचालित करते हुए वे अपनी आखिरी सांस तक देश में समाजवादी समाज व्यवस्था की स्थापना का सपना देखते रहे थे. उनकी शहादत के 16 वर्ष बाद ही देश को आजादी हासिल हो गयी, तो यह उम्मीद परवान चढ़ने लगी थी कि जल्दी ही उनका सपना साकार होगा. पर ऐसा न हो सका.
मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले में स्थित जिस भांबरा ग्राम में वे 23 जुलाई, 1906 को पैदा हुए थे, उसका नाम भी अब उनके नाम पर ‘चंद्रशेखर आजाद नगर’ कर दिया गया है. उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के जिस बदरका से जाकर वहां बसे थे, उसे भी पर्याप्त प्रतिष्ठा हासिल हो चुकी है. आजाद उन शहीदों की सूची में नहीं हैं, जिनकी स्मृतियों से अन्याय करते हुए उन्हें विस्मृति के गर्त में दफन कर दिया गया. आजाद 13 अप्रैल, 1919 को बैशाखी के दिन पंजाब के जलियांवाला बाग में हुए भयावह जनसंहार से उद्वेलित होकर स्वतंत्रता के संघर्ष में कूद पड़े थे. महात्मा गांधी ने 1922 में अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, जिसमें सक्रिय आजाद ने नाराज होकर अपने संघर्ष की दिशा बदल ली थी. नौ अगस्त, 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के बैनर पर उन्होंने लखनऊ के पास काकोरी में उसके पहले बड़े कांड को सफलतापूर्वक अंजाम दिया तथा मुकदमों, फांसी और कालेपानी जैसी सजाओं के बावजूद संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों का सिलसिला रुका नहीं. उन्होंने भगत सिंह के साथ लाहौर में सांडर्स का वध कर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया, तो दिल्ली में असेंबली बमकांड को अंजाम दिया था.
इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि उनके न रहने पर उनकी मां जगरानी देवी ने हमारी सामाजिक कृतघ्नता की भारी कीमत चुकायी. पंडित जवाहरलाल नेहरू को उनकी तंगहाली की बात मालूम हुई, तो उन्होंने उनके लिए 500 रुपये भिजवाये. बाद में सदाशिव मल्कारपुरकर जैसा बेटा पाकर जगरानी धन्य हो गयीं. सदाशिव आजाद के सबसे विश्वासपात्र सैनिकों में से थे और उन्होंने 22 मार्च, 1951 को अपने सेनापति की जन्मदात्री के निधन और अंतिम संस्कार तक उनके प्रति अपने सारे फर्ज निभाये. माता जगरानी आजाद को संस्कृत का प्रकांड विद्वान बनाना चाहती थीं. उनकी इच्छा के विपरीत वे क्रांतिकारी बनकर शहीद हो गये, तो भी माता को किसी दिन उनके अचानक लौट आने का विश्वास था. उन्होंने इसके लिए मन्नत मानकर अपनी दो उंगलियों में धागा बांध रखा था और कहती थीं कि उसे आजाद के आने के बाद खोलेंगी.
आजाद के लिए रोते-रोते उन्होंने अपनी आंखें भी खराब कर डाली थीं, लेकिन बाद में सदाशिव की सेवाओं से इतनी खुश रहने लगी थीं कि अपने आस-पास के लोगों से कहतीं- ‘चंदू (चंद्रशेखर आजाद) रहता, तो भी सदाशिव से ज्यादा मेरी क्या सेवा करता?’ सदाशिव को ऐतिहासिक भुसावल बम केस में 14 साल का कालापानी की सजा हुई थी और उनकी सजा के दौरान ही उनकी मां इस संसार को छोड़ गयी थीं. जगरानी में वे अपनी दिवंगत मां की छाया महसूस करते थे और उन्हें गर्व था कि उनके कालापानी के दिनों में भूख-प्यास तक भूल जाने वाली इस मां ने अंततः उनकी गोद में ही आखिरी सांस ली, लेकिन झांसी में इस वीरमाता की समाधि का सन्नाटा कभी-कभी ही टूटता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं).