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Friday, March 29, 2024

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डॉ मुखर्जी की विचारशक्ति का प्रभाव

शिक्षा, उद्योग को लेकर मुखर्जी का जो दृष्टिकोण था, उससे देश लंबे समय तक वंचित रहा. यह सुखद है कि डॉ मुखर्जी के विचारों वाली पार्टी भाजपा ने उनके स्वप्न को अधूरा नहीं छोड़ा.

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय राजनीति के ऐसे महान व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने आजादी के बाद देश की एकता-अखंडता के लिए अपनी जान दे दी. उनकी राजनीतिक सक्रियता मात्र 14 वर्ष थी, लेकिन वे त्याग, राष्ट्रसेवा, राजनीतिक मूल्यों व सिद्धांतों के एक उच्चतम मूल्य को स्थापित कर गये. उनकी विचारशक्ति का प्रभाव व्यापक था. भारतीयता, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ-साथ अखंड भारत पर उनका चिंतन बेहद प्रासंगिक है. डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म छह जुलाई, 1901 को कोलकाता के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था.

महज 33 वर्ष की उम्र में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने और चार वर्षों तक इस दायित्व का निर्वहन किया. कम समय में उन्होंने अनेक पदों को सुशोभित किया. वे बंगाल के वित्तमंत्री भी रहे, हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे, देश के प्रथम उद्योग मंत्री रहे, जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष, शिक्षाविद् के साथ-साथ बैरिस्टर भी रहे. राष्ट्र सेवा के विचारों की मंशा उन्हें थकने नहीं देती थी. आजादी के बाद जब पहली अंतरिम सरकार का गठन हो रहा था, तो महात्मा गांधी के निर्देश पर पंडित नेहरू ने उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया. वे पहले उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने.

सरकार में रहते हुए उनकी चिंता रहती थी कि गांव में छोटे-छोटे उद्योग-धंधों को कैसे व्यापार की मुख्यधारा से जोड़ा जाये. इसके लिए उन्होंने उद्योगों की बुनियाद तैयार की और कुटीर एवं लघु उद्योग की व्यवस्थित ढंग से शुरुआत की. उन्होंने भाखड़ा नंगल बांध, भिलाई इस्पात उद्योग, सिंदरी खाद कारखानों की परिकल्पना कर देश में औद्योगिक विकास की मजबूत बुनियाद रखी. देश को चलाने के लिए बन रही नीतियां डॉ मुखर्जी को रास नहीं आयीं, उसमें भारतीयता के भाव की कमी थी.

नेहरू-लियाकत समझौते के बाद आठ अप्रैल, 1950 को उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. डॉ मुखर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना की. देश में जब लोकतंत्र का उदय हुआ था, तो यह भी जरूरी था कि एक ऐसा दल भी हो, जो सरकार की नीतियों की आलोचना करने के साथ लोकतंत्र की सफलता को भी सुनिश्चित करे. उस समय नेहरू एवं कांग्रेस की लोकप्रियता उफान पर थी, ऐसे दौर में जनसंघ की राह बहुत मुश्किल थी, परंतु डॉ मुखर्जी दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे.

उन्होंने अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाना तथा लोगों को जोड़ना शुरू किया. उसका परिणाम भी 1952 के आम चुनाव में देखने को मिला. जनसंघ को तीन सीटें मिलीं. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, भारतीय मिट्टी की सुगंध को लेकर डॉ मुखर्जी देशभर के नौजवानों को जागृत कर रहे थे. शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, समान विचार वाले संगठनों के साथ वे जनसंघ और उसकी नीतियों का परिचय कराते रहे. उन्होंने देश की एकता एवं अखंडता को बनाने हेतु कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट सिस्टम की व्यवस्था और धारा 370 को खत्म करने का अभियान तेज किया.

‘एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा’ के नारे के साथ आठ मई, 1953 को बगैर किसी अनुमति के उन्होंने कश्मीर की यात्रा प्रारंभ कर दी. शेख अब्दुल्ला सरकार ने 11 मई, 1953 को डॉ मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया और कैद में ही राष्ट्रवाद और भारतीयता का यह सूर्य हमेशा के लिए 23 जून, 1953 को अस्त हो गया. वे अविभाज्य जम्मू-कश्मीर के सपनों को पिरोये हुए शहीद हो गये.

डॉ मुखर्जी विपक्ष के प्रमुख नेता थे, देश के बड़े नेता व प्रतिभाशाली सांसद थे. उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत से देश में एक बड़ी बहस हुई, कांग्रेस के अंदर से भी डॉ मुखर्जी की मृत्यु की जांच की मांग उठी. उनकी माता जोगमाया देवी ने भी रहस्यमयी मृत्यु की जांच की मांग की. लेकिन, इसकी कोई जांच नहीं हुई. आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि चौतरफा मांग के बावजूद पंडित नेहरू ने जांच के आदेश क्यों नहीं दिये?

भारत के राजनीतिक इतिहास में लोकतांत्रिक मूल्य की व्याख्या जब भी की जाती है अथवा भारत के इतिहास की जब भी विवेचना की जाती है, तब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की यश-कीर्ति को छोटा दिखाने तथा उसे धार्मिक रंग देने का पूर्वाग्रही प्रयास वामपंथी इतिहासकारों द्वारा किया जाता है. यही कारण है कि शिक्षा, उद्योग को लेकर मुखर्जी का जो दृष्टिकोण था, उससे देश लंबे समय तक वंचित रहा.

यह सुखद है कि डॉ मुखर्जी के विचारों वाली पार्टी भाजपा ने उनके स्वप्न को अधूरा नहीं छोड़ा. उचित समय आने पर राष्ट्र की एकता-अखंडता में बाधक अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया. डॉ मुखर्जी ने अल्पायु में ही जो सिद्धियां अर्जित कीं, वह भारतीयों के लिए सदैव प्रेरणादायी बनी रहेंगी. उनकी रहस्यमयी मृत्यु और पंडित नेहरू द्वारा मृत्यु की जांच नहीं कराना, एक अनुत्तरित प्रश्न है, जिसका जवाब हर देशवासी आज भी जनाना चाहता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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