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अक्षम सुरक्षा परिषद

अक्षम सुरक्षा परिषद

शक्ति, संरचना, नियम और मानकों के मामले में भू-राजनीति संयुक्त राष्ट्र के गठन के बाद से पूर्णतः बदल चुकी है. इस कालखंड में दुनिया ने शक्ति संतुलन को बदलते और नयी शक्तियों को उभरते हुए देखा है. औपनिवेशक युग का अवसान और नये स्वतंत्र राष्ट्रों का उत्थान देखा है. लेकिन, इन बदलावों के बीच स्वयं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ही अप्रासंगिक होता गया.

उसकी अपंग कार्यशैली आज की वैश्विक शांति और सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को हल कर पाने में सक्षम नहीं है. संयुक्त महासभा के 75वें सत्र में सुरक्षा परिषद की इसी अक्षमता का जिक्र करते हुए भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने सही ही कहा कि यहां आइजीएन (अंतर-सरकारी वार्ता) विश्वविद्यालयों में होनेवाली बहस के प्लेटफॉर्म जैसी ही बनकर रह गयी है.

यहां नतीजों तक पहुंचने की कोशिशें नहीं होतीं और बीते एक दशक में यह केवल जोशीले भाषणों का मंच बना रहा है. कार्यवाही के निर्धारित नियम और रिकॉर्ड नहीं होना भी आइजीएन की लापरवाही को दर्शाता है. कुछ मुट्ठीभर देश ऐसे हालात के लिए जिम्मेदार हैं और सुधारों की राह में बड़े अवरोधक भी. भारत हमेशा खुली, समावेशी और पारदर्शी प्रक्रिया का समर्थक रहा है.

शांति स्थापना, प्रतिबंध लगाने और सुरक्षा परिषद प्रस्तावों के तहत सैन्य कार्रवाई जैसे प्रभावी फैसले लेने के लिए ही सुरक्षा परिषद का गठन किया गया था. लेकिन, जिस तरह से दुनिया के अनेक हिस्सों में शांति बाधित हुई और हिंसा का अंतहीन तांडव चला, उसे नियंत्रित कर पाने में सुरक्षा परिषद पूरी तरह से असफल ही रहा है.

पांच स्थायी सदस्य देशों के फैसले आज की वास्तविकता के अनुकूल नहीं हो सकते. शीत युद्ध के बाद वैश्विक आर्थिक ऑर्किटेक्चर बदल चुका है. भारत जैसे अनेक देशों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र में लोकतंत्र की कमी प्रभावी बहुपक्षवाद को बाधित करती है. बहुपक्षवाद और समुचित प्रतिनिधित्व के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र की खामोशी दुर्भाग्यपूर्ण है.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशनों में सबसे बड़ा भागीदार भी रहा है. भारत की विदेश नीति विवादों के बजाय हमेशा विश्व शांति की पैरोकार रही है. सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर भारत वैश्विक मसलों से निपटने में असरकारक भूमिका अदा कर सकता है.

भारत के अलावा दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका का प्रतिनिधित्व न होना वर्तमान भू-राजनीतिक वास्तविकताओं से मुंह मोड़ने जैसा ही है. दक्षिण एशिया युद्ध, आतंकवाद और उन्माद से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक है.

क्षेत्रीय स्तर पर इन चुनौतियों से निपटने के लिए भारत का सशक्त होना जरूरी है. भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य है और इतने वर्षों बाद सुरक्षा परिषद में नुमाइंदगी नहीं मिलना सरासर गलत है. समय की मांग है कि वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए भारत जैसे देश विश्व मंच पर अपनी प्रभावी भूमिका अदा करें.

भारत जैसे अनेक लोकतंत्र समर्थक देशों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र में लोकतंत्र की कमी प्रभावी बहुपक्षवाद को बाधित करती है.

posted by : sameer oraon

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