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मेक इन इंडिया का मंत्र ही बचायेगा

व्यवसायों, मेडिकल और राजनीति की शोरगुल से भारी आवाजें बता रही हैं कि संस्थाएं मौजूदा संकट और भविष्य की चुनौतियों के सामने असफल रही हैं. यह अजीब है कि महामारी की भविष्यवाणी करनेवालों की संख्या अधिक है. इसमें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और बिल गेट्स भी शामिल हैं.

प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस.

prabhuchawla @newindianexpress.com

बकौल ऑस्कर वाइल्ड, अप्रत्याशित का अनुमान आधुनिक बुद्धि को दर्शाता है. लेकिन आज ऐसा नहीं कर पाना आधुनिक बुद्धि का अभिशाप है. कोविड-19 के व्यापक संक्रमण से स्पष्ट है कि न केवल वैज्ञानिक, अकादमिक, अर्थशास्त्री और मेडिकल विशेषज्ञ इस आपदा का अनुमान लगा पाने में असफल रहे, बल्कि उनके नकली प्रतिभावान भी प्रभावी नुस्खे को खोजने में अक्षम रहे. अखबारों और टीवी चैनलों पर कॉर्डियोलॉजिस्ट विरोलॉजिस्ट बन गये, अर्थशास्त्री मानसिक तनाव पर बात कर रहे हैं और त्वचा रोग विशेषज्ञ सांस की तकलीफ पर ज्ञान दे रहे हैं. यहां तक कि पैथलैब के मालिक बुद्धि विशेषज्ञ के तौर पर इडियट बॉक्स में आकर बीमारी की रोकथाम और इलाज के उपाय सुझा रहे हैं.

व्यवसायों, मेडिकल और राजनीति की शोरगुल से भारी आवाजें बता रही हैं कि संस्थाएं मौजूदा संकट और भविष्य की चुनौतियों के सामने असफल रही हैं. यह अजीब है कि महामारी की भविष्यवाणी करनेवालों की संख्या अधिक है. इसमें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और बिल गेट्स भी शामिल हैं. भारत में एक दस वर्ष के योगी से लेकर कई वाचाल राजनेताओं ने संक्रामक बीमारी की आपदा का पूर्वानुमान लगाने का दावा किया है. लेकिन, इनमें से किसी बौद्धिक ने निदान का उपाय नहीं सुझाया. लाखों डॉलर का अनुदान देनेवाले बिल गेट्स और उनके फाउंडेशन ने कोरोना वैक्सीन के लिए किसी टीम को राशि नहीं प्रदान की. क्यों नहीं कॉरपोरेट लीडर और हॉर्वर्ड से पढ़े उद्यमियों ने उनके भाषण की चेतावनी को समझा और शोध व विकास के लिए दरियादिली दिखायी. बुश ने अपने संस्थान के माध्यम से प्रयोगशालाओं को सहायता मुहैया क्यों नहीं करायी?

राजनेता और दिग्गज ही नहीं, कई गल्प लेखकों और मनोरंजन जगत के उद्योगपतियों के लिए वायरस व्यावसायिक खुराक है. सार्स और स्वाइन फ्लू बीमारी की पूर्व चेतावनियों ने भी लालची दवा कंपनियों को भी भविष्य में निवेश के लिए बाध्य नहीं किया. वे बीमारी में भी धन उगाहती रहीं. सरकारों और संस्थाओं द्वारा चंद्रमा पर मानव को भेजने, जासूसी और व्यावसायिक उपग्रहों को लांच करने के लिए बेशुमार धन खर्च किया जाता है. हथियारों को इकट्ठा करने, विलासिता पूर्ण वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति, शेयर बाजारों में हेराफेरी को बढ़ावा देने, असफल कारोबारियों के कर्ज माफी में बड़ी धनराशि खर्च की जाती है. राजनीति में भी अथाह खर्च होता है. इन सभी खर्चों का भार जनता पर होता है. ज्यादातर देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राथमिकता में शामिल नहीं है. भारत और कई अन्य देश सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अपने जीडीपी का दो प्रतिशत से भी कम खर्च करते हैं. मेडिकल शोध पर भी पर्याप्त खर्च नहीं किया जाता है.

हो सकता है कि कोविड-19 की त्रासदी से नहीं बचा जा सकता था, लेकिन अग्रिम शोध प्रोटोकॉल और सामाजिक ढांचे को मजबूत बनाकर बड़े नुकसान को कम किया जा सकता था. आज दवाओं, मास्क, जांच किट, वेंटिलेटर और व्यक्तिगत सुरक्षा किट की बहुत कमी है. कई देशों में प्रारंभिक जांच किट तैयार करने में दो से तीन हफ्तों का समय लग रहा है. वर्तमान में वायरस के कारण हाशिये पर गये लोगों और उद्यमियों को अस्थायी तौर पर आर्थिक राहत देने पर जोर दिया जा रहा है. अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप और चीन जैसे समृद्ध देश राहत के लिए अपनी जीडीपी का 10 से 15 प्रतिशत तक आवंटित कर रहे हैं. वे अर्थव्यवस्था के घाटे के सिद्धांत को दरकिनार कर आमजन को उबारने में जुटे हैं.

इस बीच भारत ने वायरस के खिलाफ लड़ाई के लिए अलग रास्ता चुना है. अभी संक्रमण के लगभग 17 हजार मामलों के साथ भारत इस हालात से निपटने में बेहतर स्थिति में है. हालांकि उद्यमों को आर्थिक राहत देने में रुढ़िवादी सरकार ने वायरस के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए संपूर्ण लॉकडाउन के मॉडल को सफलतापूर्वक लागू किया है. इस तालाबंदी से वायरस के फैलने का ग्राफ भले रुक जाये, लेकिन निम्न और मध्यम वर्ग पर इसके आर्थिक नुकसान का ध्यान नहीं दिया गया है. देश के कई हिस्सों में ढाई करोड़ से अधिक प्रवासी फंसे हुए हैं. आवास और अन्य आवश्यक सुविधाओं के अभाव में घिरे लोगों ने सबसे पहले आवाज मुखर की. सरकारी से एनजीओ तक लगभग सभी एजेंसी मुफ्त खाद्यान्न वितरण कर रही हैं. इस उदारता के बावजूद मजदूरों को पैदल ही अपने शहरी आवास को छोड़ने से रोका नहीं जा सका. अपने गांवों तक पहुंचने के लिए इन मजदूरों ने 500 किलोमीटर तक पैदल सफर किया.

यहां तक कि राजनेताओं, अफसरों और समझदार लोगों ने कोरेंटिन का उल्लंघन किया. बड़ी संख्या में धार्मिक भीड़, विवाह समारोह और यहां तक राजनीति जुटान, यह मानकर की गयी है कि समस्या उनकी नहीं, किसी और की है. इससे स्पष्ट है कि भारत कोरोना समस्या को हल करने में अपने विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक पहचान को छोड़ने में सक्षम नहीं है. विदेशों से प्रशिक्षित गरीबी विशेषज्ञ अर्थशास्त्री अधिशेष खाद्य भंडार को लोगों में मुफ्त वितरण करने का सुझाव दे रहे हैं. वे भारत के जमीनी यथार्थ से कटे हुए हैं, वे भूल जाते हैं कि गरीबों को दवाओं, कपड़ों, स्थानीय यातायात, किराये के मकान, स्कूल की फीस आदि के लिए पैसा चाहिए.

स्वास्थ्य विशेषज्ञ दवाओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और वे शायद ही भविष्य की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर परेशान होते हैं. भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की बेहतरी के लिए भारत को एक आर्थिक मॉडल की जरूरत है. कोरोना भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जीवित कर सकता है, अगर बेरोजगार मजदूरों को वैकल्पिक रोजगार दिये जायें. हर प्रकार के वायरस का समाधान विटामिन एम (मनी) है. जब तक प्रत्येक व्यक्ति को नियमित आय सुनिश्चित नहीं की जाती है, तब तक इस दैत्य से सफलतापूर्वक लड़ा और परास्त नहीं किया जा सकता है. हालांकि, मानवतावादी रूप से यह स्वीकार्य नहीं लगे, भारत की आध्यात्मिक क्षमता महामारी को ईश्वरप्रदत्त तत्व बना सकती है और ‘मेक इन इंडिया’ के मंत्र को पुनर्जीवित कर सकती है. भारतीय भावना में ऐसे विचार के पैदा होने की कामना करें.

(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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