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झारखंड की भाषाओं का संरक्षण

सुदूर आंचलिक व अपनी आदिम परंपराओं के साथ जी रही कई जनजातियों पर जंगल नष्ट , जीवकोपार्जन के पारंपरिक साधन समाप्त होने, शहरीकरण, बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधा के अभाव के चलते अस्तित्व का संकट है.

वे न तो कोई लेखक थे और न ही अनुवादक, न ही साहित्यकार या प्राध्यापक. बस वे अपने पुरखों से मिली थाती- इन भाषाओं को अपने मन-वचन-कर्म में रोज जीते हैं. ऐसे ही समाज के लोगों को सरकार ने ‘पीवीजीटी’ घोषित कर दिया है, अर्थात् ऐसी जनजातियां जिनकी आबादी तेजी से घट रही है. जाहिर है कि आबादी घटने के साथ उनकी भाषा, संस्कृति, लोक-मान्यताएं, भोजन आदि पूरी संस्कृति पर संकट मंडराने लगता है. ऐसी पांच भाषाओं के ठेठ ग्रामीण लोग रांची के डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान (टीआरआइ) में एकत्र हुए.

उन्हें बुलाया शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नयी दिल्ली ने. पांच भाषाओं- बिरहोरी, माल्तो, असुरी, बिरजिया और भूमिज के दो-तीन जमीनी विशेषज्ञ एक साथ बैठे, तो तीन दिन में न केवल बच्चों की रंग-बिरंगी तीन-तीन पुस्तकों का अनुवाद कर दिया, बल्कि उनकी टाइपिंग, प्रूफ करेक्शन और डमी बनाने का काम भी कर दिया गया. इन पुस्तकों का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया है. इनमें से कुछ भाषाओं में तो यह पहली मुद्रित पठन सामग्री है. हाल ही में झारखंड सरकार ने कोई एक करोड़ रुपये खर्च कर इन पुस्तकों को दूरस्थ अंचल तक के बच्चों को पहुंचाना सुनिश्चित किया है.

आमतौर पर हिंदी में जिन भाषा-बोलियों के अनुवाद, शब्दों के आदान-प्रदान और हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए आदिवासी बोलियों से शब्द उधार लेने की परंपरा रही है वे बोली-भाषाएं भारोपीय परिवार से ही रही हैं. झारखंड में सांस्थानिक स्तर पर द्रविड़ और आस्ट्रो-एशियाई परिवार की भाषा-बोलियों को करीब लाने का कार्य गत दो वर्षों से चल रहा है और इसमें केंद्र सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट व राज्य सरकार के टीआरआइ दो कार्यशालाओं के माध्यम से 10 भाषाओं में बाल साहित्य की पचास से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं.

शुरुआत में झारखंड में व्यापक रूप से बोली जाने वाली पांच भाषाओं- संताली, कुड़ुख, हो, खड़िया और मुंडारी भाषा में किया गया. चूंकि, इन भाषाओं में कई प्राध्यापक, उच्च शिक्षित और अनुभवी लोगों के साथ नयी पीढ़ी भी शामिल थी, सो महज तीन दिवसीय कार्यशाला में 35 पुस्तकों का अनुवाद, संपादन, टाइपिंग और डमी बना दी गयी. इनमें तीन-तीन अनुवादक और दो-दो भाषा विशेषज्ञ प्रत्येक भाषा से आये, तो संपादन व भाषा को संवारने के काम में समय नहीं लगा.

अनुवाद की असली चुनौती पीवीजीटी भाषाओं को लेकर थी जहां भाषा को व्यवहार में तो लाया जा रहा था, लेकिन उसकी लिखित सामग्री प्रायः उपलब्ध नहीं थी. कुछ भाषाओं में चर्च द्वारा विकसित भाषा की छोटी-मोटी डिक्शनरी अवश्य थी. असुरी जैसी बोली के अनुवादक के लिए तो लिखना भी कठिन था. वे मौखिक अनुवाद करते, फिर उसे बड़े अक्षर में लिखा जाता और फिर वे उसमें संशोधन करते.

इस कार्यशाला से उपजे आत्मविश्वास ने इन ‘अनजान-भाषा विशेषज्ञों’ में इतना आत्मविश्वास भर दिया कि अब टीआरआइ ने इनकी मदद से इन पांच भाषाओं में व्याकरण, गद्य और पद्य की ऐसी पुस्तकें विकसित कर दी हैं, जिनका इस्तेमाल स्कूल व नौकरी की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी किया जा सकता है. विदित हो कि झारखंड सरकार ने पीवीजीटी भाषाओं को विभिन्न नौकरियों की परीक्षा के लिए भी मान्यता दे दी है.

इस तरह झारखंड की भाषाओं को बच्चों तक आकर्षक तरीके से पहुंचाने के महायज्ञ का प्रारंभ दो साल पहले टीआरइ और नेशनल बुक ट्रस्ट के बीच हुए एक समझौता ज्ञापन से हुआ था. इसके तहत झारखंड के बच्चों के लिए उनकी सभी भाषाओं में साहित्य उपलब्ध करवाने, टीआरआइ के चुनिंदा शोध को पुस्तक के रूप में हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में ले कर आने और रांची में नेशनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक बिक्री केंद्र की स्थापना का कार्य किया जा रहा है. इसी समझौते के अनुरूप इन दिनों टाना भगत या असुर जनजाति जैसे विषयों पर झारंखड की जनजातियों से जुड़े छह विषयों पर हिंदी अनुवाद का कार्य भी चल रहा है.

झारखंड में वैसे तो 32 भाषाएं हैं, लेकिन जिन जनजाति समुदायों के लोग अच्छी सरकारी नौकरियों में आ गये, आज उन्हीं भाषाओं का बोलबाला है. सुदूर आंचलिक व अपनी आदिम परंपराओं के साथ जी रही कई जनजातियों पर जंगल नष्ट होने, जीवकोपार्जन के पारंपरिक साधन समाप्त होने, शहरीकरण, बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधा के अभाव के चलते अस्तित्व का संकट है. इस तरह से अनुवाद का कार्य एक तो बच्चों में अपनी भाषाई अस्मिता को सहेज कर रखने का भाव पैदा करता है, दूसरा यह उन भाषाओं का दस्तावेजीकरण भी है ताकि इनके मूल स्वरूप की बानगी भी रहे.

तेजी से हो रहे पलायन व त्वरित संचार के युग में किसी भी भाषा में अन्य का मिश्रण होने में समय नहीं लगता है. आज आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों की जो 50 पुस्तकें तैयार हो गयी हैं उन्हें दूरस्थ अंचलों तक पाठकों तक पहुंचाने के लिए समाज और सरकार दोनों त्वरितता से काम करें. साथ ही, अन्य लुप्त होती भाषाओं के दस्तावेजीकरण के लिए भाषा के मानक, शब्दावली आदि पर काम हो.

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