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बंधन-मुक्त भारत का कर पर्व

तरुण विजय सांसद, राज्यसभा अगर क्षण सही पकड़ लिया तो नेतृत्व कायमयाब है, वरना लकीर के फकीर तो आते हैं और बिना पद-छाप छोड़े चले जाते हैं. नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली ने जीएसटी विधेयक पारित करवा कर देश के मुहूर्त को पकड़ लिया और कर की चोरी से ग्रस्त भारत कर पर्व मना बैठा. […]

तरुण विजय
सांसद, राज्यसभा
अगर क्षण सही पकड़ लिया तो नेतृत्व कायमयाब है, वरना लकीर के फकीर तो आते हैं और बिना पद-छाप छोड़े चले जाते हैं. नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली ने जीएसटी विधेयक पारित करवा कर देश के मुहूर्त को पकड़ लिया और कर की चोरी से ग्रस्त भारत कर पर्व मना बैठा.
हर नयी चीज के प्रति आशंकाएं, दुविधाएं, संदेह बने ही रहते हैं. विमुद्रीकरण के बारे में भी ऐसा ही कहा गया. जनता ने उसे पूर दिल से स्वीकारा क्योंकि उसे लगा कि बेहद अमीर, भ्रष्ट लोगों के खिलाफ यह करारा वार है. नीतीश कुमार ने भी राजनीतिक जोखिम लेकर क्षण पकड़ा और नशाबंदी लागू की. निरंतर बौने होते जा रहे विपक्ष में सबसे कद्दावर और राष्ट्रीय छवि वाला कोई नेता उभरा है, तो वह सही काम के लिए सही क्षण पकड़ने की कुशलता के लिए जाने गये नीतीश कुमार हैं.
जैसे धर्म के ताने-बाने देश के एक छोर को दूसरे से बांधते हैं- अरुणाचल में परशुराम कुंड और द्वारिका में कृष्ण, कश्मीर में अमरनाथ और दक्षिण में रामेश्वरम. वैसे ही भारत का संविधान देश की एकता का बड़ा सूत्र है. हम कहीं भी रहें, कैसे भी रहें, कुछ भी करें, अहर्निश हम सबको संविधान के तले ही काम करना होता है. संविधान ही हमें बांधता है और जो भी संविधान के प्रति अवमानना का भाव लेकर चलता है, उसे देश अस्वीकार करता है.
भारत में मुद्रा और कर प्रणाली भी सबको इसी संविधान के अंतर्गत एक राष्ट्रीय सूत्र में बांधती है. विमुद्रीकरण के बाद की स्थिति हमने देखी है. मीडिया और विपक्षी जनसंपर्क दफ्तरों में तनिक हाय-तौबा हुई पर अंतत: पूरा देश एकता के मौद्रिक सूत्र में बंध गया. कर प्रणाली का कुछ ऐसा विद्रूप एवं विखंडनवादी स्वरूप रहा कि लोग कर देने से बचना अपनी नागरिकता का बेहतर पक्ष मानने लगे. दुरुह प्रणाली, कर अधिकारियों का सतानेवाला व्यवहार और इतनी जटिलता कि कोई भी ईमानदार व्यक्ति तौबा कर ले.
यदि पूरा देश एक है, जन एक है, तो कर प्रणाली भी क्यों नहीं एक जैसी होनी चाहिए? एक कहावत थी कि भारत में हर दो कोस पर पानी और दस कोस पर भाषा बदल जाती है. क्या वैसा ही कर प्रणाली के लिए चल सकता है कि प्रदेश की सीमा लांघते ही कर प्रणाली बदल जाये? इसका सबसे सर्वनाशी प्रभाव व्यापार, उद्योग तथा पूंजी निवेश पर होता रहा है. केवल भारतीय व्यापारी ही नहीं, विदेशी पूंजी निवेशक भी बरसों से जीएसटी विधेयक पारित होने का इंतजार कर रहे थे.
विमुद्रीकरण और चुनावों में शानदार विजय के बाद जीएसटी विधेयक पारित कर नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली ने दुनिया में भारत के सशक्त, उद्देश्य केंद्रित और निर्णायक नेतृत्व की धमक बैठा दी. राज्यसभा में जिस विपक्ष ने इस विधेयक का तथाकथित विरोध करते हुए कुछ संशोधन पारित करवा लिये, वह हास्यास्पद और खिसियाने लोगों की खीझ मात्र है.
सब जानते हैं कि यह कदम राष्ट्रहित में है, फिर भी इसे पारित करने में भारतीय विधि निर्माताओं यानी कि सांसदों को सत्रह वर्ष का समय लगा. अपना वेतन बढ़ाने या अपने नेता पर डाक टिकट छपवाने में तो वे इतना लंबा समय नहीं लगाते. अब सोचिये कि साल 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने एक उच्च स्तरीय समिति बनायी थी, जिसे जीएसटी यानी वस्तुओं और सेवाओं पर कर का आदर्श ढांचा और उसे लागू करने के लिए निम्मतम स्तर तक की प्रणाली एवं व्यवस्था का प्रशासनिक शिल्प देने की उस समिति को जिम्मेवारी दी गयी. यह सब हो गया.
अटलजी के बाद कांग्रेस नेतृत्व में गंठबंधन सरकार बनी और 2 फरवरी, 2006 को तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने सदन में घोषित किया कि जीएसटी प्रणाली 1 अप्रैल, 2010 से पूरे देश में लागू कर दी जायेगी. पर उन्होंने क्षण पकड़ा नहीं, मुहूर्त गंवा दिया. कांग्रेसनीत शासन के पूरे 10 साल देश ने ठहरे हुए पानी के मानिंद गंवा दिया. हर दिन देश घोटाले, आपसी झगड़े, लूट की बंदरबांट, नेतृत्व की दिशाहीनता और नीतियों पर अनिर्णय से गुजरता रहा. यह देश भले, भद्र, तेजस्वी नागरिकों का देश है, पर सदा नेतृत्व ही उसे फेल करता रहा.
अब जीएसटी एक नयी कर प्रणाली से आर्थिक उछाल को बल देगा. केंद्र और राज्य सरकारों में राजस्व वितरण का जो ढांचा सर्वानुमित से तय हुआ है, उससे राज्यों को हजारों करोड़ों रुपये अतिरिक्त आय होगी, प्रशासनिक बोझ कम होगा, सार्वजनिक योजनाओं के लिए उन्हें अपना पैसा मिलेगा, केंद्र की ओर नहीं देखना पड़ेगा.
विश्व में सबसे कम संख्या में करदाता भारत में हैं. केवल 3.7 करोड़ करदाता जिन्होंने रिटर्न भरे, उनमें से 2.94 करोड़ या तो कर देने की सीमा रेखा यानी 2.5 लाख रुपये प्रतिवर्ष से अपनी आय कम दिखाते हैं या कम से कम कर देनेवाले वर्ग 2.5 लाख से पांच लाख रुपये प्रतिवर्ष आय में खुद को रखते हैं. जबकि, यही नागरिक साल में दो करोड़ की कारें खरीदते हैं, एक करोड़ 25 लाख की विदेश यात्रा पर जाते हैं, लेकिन कर नहीं देना चाहते.
जीएसटी आम आदमी की जिंदगी से कर का भय हटायेगा और कुल जमा गरीबी उन्मूलन में इसका सबसे बड़ा असर होगा. जीएसटी से तुरंत व्यापार में वृद्धि होगी, राज्य सरकारों का राजस्व बढ़ेगा और बहुत बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर खुलेंगे.
विशेषकर एक सरलीकृत कर प्रणाली से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश बढ़ेगा तथा देश की विकास दर में वृद्धि होगी. विकास के लिए यदि जोखिम और कठोर निर्णय लेने का साहस नहीं हो, तो नेतृत्व समाज और देश को विफल करता है. प्रधानमंत्री मोदी ने हिम्मत और हौसले से आर्थिक मोर्चे पर जो कठोर निर्णय लिये हैं, वे भारत के भविष्य के लिए शुभ है.

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