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मीडिया पर पाबंदी अनुचित
हम विश्वास के घाटे के दौर में रह रहे हैं और रोज महसूस करते हैं कि लोकतंत्र की महनीय संस्थाओं की विश्वसनीयता छीज तो रही है, लेकिन बतौर आम नागरिक ज्यादातर मौके पर इसके प्रतिकार में हम कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं हैं. मिसाल के लिए, कुछ ही हफ्ते पहले वर्ल्ड इकोनॉमिक […]
हम विश्वास के घाटे के दौर में रह रहे हैं और रोज महसूस करते हैं कि लोकतंत्र की महनीय संस्थाओं की विश्वसनीयता छीज तो रही है, लेकिन बतौर आम नागरिक ज्यादातर मौके पर इसके प्रतिकार में हम कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं हैं.
मिसाल के लिए, कुछ ही हफ्ते पहले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के लिए एल्डमेन ट्रस्ट द्वारा किये गये सर्वेक्षण के हवाले से खबर आयी है कि भारतीय मीडिया आॅस्ट्रेलिया के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा अविश्वसनीय संस्थाओं में एक है. वह खबर यह भी कह रही थी कि दुनियाभर में लोगों का सरकार, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं पर भरोसा कम हुआ है. हो सकता है एल्डमेन ट्रस्ट के सर्वेक्षण के निष्कर्ष पर हममें से कई ऐतराज जतायें, परंतु सर्वेक्षण का निष्कर्ष सिर्फ भारत के लिए नहीं, बल्कि दुनिया के और कई अन्य देशों के बारे में एक रुझान को रेखांकित करता है.
एक ताजा प्रकरण में असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में वन्यजीव के संरक्षण के मकसद से उठाये जा रहे कदमों के बारे में बीबीसी ने एक वृत्त चित्र में कुछ चौंकानेवाले खुलासे किये, तो सरकार की भौंहें उस पर तन गयीं. वन्य जीव संरक्षण की शीर्ष संस्था नेशनल टाइगर कंजर्वेशन ऑथॉरिटी (एनटीसीए) ने बीबीसी नेटवर्क और डाॅक्यूमेंटरी बनानेवाले पत्रकार पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया है. इस डाॅक्यूमेंटरी में कहा गया है कि काजीरंगा उद्यान के फॉरेस्ट गार्ड को ऐसे अधिकार दिये गये हैं कि वे गैंडा को नुकसान पहुंचने की आशंका होने पर किसी पर भी गोली चला सकते हैं.
यहां नुक्ते की बात यह है कि भारतीय मीडिया की नजर इस खबर पर नहीं गयी. काजीरंगा उद्यान भारतीय मीडिया के लिए एक अभयारण्य के रूप में प्रगतिशील भारत की वैज्ञानिक सोच का प्रतीक ही बना रहा. विदेश के एक मीडिया ने अपने लेंस से ढकी हुई सच्चाई को कुरेदने की कोशिश की, तो सरकारी संस्था मामले की तहकीकात से पहले ही अपने फैसले पर पहुंच गयी और उसे बीबीसी का मुंह बंद करना जायज लगा. सरकारी संस्था सोचती है कि मीडिया को विदेशी ठहरा कर उसके कहे कड़वे सच से मुंह फेरा जा सकता है.
देश की मीडिया को लगता है कि व्यक्ति के अधिकार छीनते हों, तो छीनें, मगर शासन के कामकाज को टोकना तो राष्ट्रविरोधी हो जायेगा. ऐसे में ज्यादातर लोगों को लगे कि जिसका जो संविधान-प्रदत्त काम है, उसे वह नहीं निभा रहा है और ठीक इसी कारण भरोसे के काबिल नहीं है, तो क्या अचरज! हमें संदेश की फिक्र करनी होगी, संदेशवाहक का मुंह बंद करने से संदेश की सच्चाई नहीं मरती.
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