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छुट्टी का गणतंत्र दिवस

प्रभात रंजन कथाकार आज गणतंत्र दिवस है. सच कहें तो महानगरों में रहनेवाले हम जैसे मध्यवर्गीय लोगों के लिए गणतंत्र दिवस छुट्टी का एक दिन भर रह गया है. एक साथी ने पहले ही ध्यान दिलाया था कि इस बार गणतंत्र दिवस गुरुवार को है, शुक्रवार की छुट्टी ले लो, तो तीन-चार दिन के लिए […]

प्रभात रंजन

कथाकार

आज गणतंत्र दिवस है. सच कहें तो महानगरों में रहनेवाले हम जैसे मध्यवर्गीय लोगों के लिए गणतंत्र दिवस छुट्टी का एक दिन भर रह गया है. एक साथी ने पहले ही ध्यान दिलाया था कि इस बार गणतंत्र दिवस गुरुवार को है, शुक्रवार की छुट्टी ले लो, तो तीन-चार दिन के लिए कहीं घूमने चल सकते हैं.

ईमानदारी की बात है कि जिस साल गणतंत्र दिवस शनिवार या रविवार को पड़ जाता है, तो एक मजबूत गणतांत्रिक देश के नागरिक होने के ऊपर गर्व कम, छुट्टी के मारे जाने का दुख अधिक होता है.

मुझे अक्सर गणतंत्र दिवस की याद अपने बचपन के शहर मुजफ्फरपुर ले जाती है, जब मैं वहां स्कूल में पढ़ता था. इस दिन हम सुबह-सुबह उठ कर तैयार होते थे. तब स्कूलों में छुट्टी नहीं होती थी. ठंड की सुबह हम हाथों में झंडे थामे, इस्तरी किये हुए सफेद कपड़ों में अपने स्कूल के आस-पास के मोहल्लों में प्रभात फेरियां निकाला करते थे. उसके बाद वापस स्कूल में आते थे और 52 सेकेंड में राष्ट्रगान गाकर प्रफुल्लित हो जाते थे. हमें स्कूल में यह सिखाया जाता था कि राष्ट्रगान को 52 सेकेंड में गाया जाता है और घड़ी देख कर गाने का अभ्यास भी कराया जाता था. झंडोत्तोलन के बाद जलेबी खाने को मिलता था.

एक स्वतंत्र देश के नागरिक की तरह हम उस दिन एक-दूसरे को जय हिंद जय हिंद कहते हुए घर लौट आते थे. स्कूलों में पढ़ाई से छुट्टी जरूर होती थी और हमारे लिए वही बड़ी खुशी की बात होती थी. उन दिनों के बारे में मैं अब सोचता हूं तो लगता है कि प्रभात फेरियों के माध्यम से कुछ नहीं तो सामाजिकता की भावना का प्रसार तो होता ही था. अलग-अलग समूहों में बच्चे झंडे लेकर जब भारत माता की जय कहते हुए, देशभक्ति के गीत गाते हुए, जब हम बच्चे शहर में घूमते थे, तो सचमुच में एक सामूहिक राष्ट्रीय भावना मन के अंदर पैदा होती थी. मुझे आज भी याद है, कई साल तक मैं उस दिन स्कूल में यह गीत गाता रहा था- ‘ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम, तेरी राहों में जां तक लुटा जायेंगे…’ आज भी जब कभी यह गीत कहीं बजते हुए सुनता हूं, तो मेरे मन के परदे पर वह जमाना सिनेमा की तरह चलने लगता है.

मुझे याद आता है कि जब से टीवी का प्रसार हुआ और घर-घर टीवी पहुंचने लगा, तो प्रभात फेरी की यह परंपरा समाप्त होने लगी. 26 जनवरी के दिन टीवी पर अलग-अलग राज्यों की झांकियां देखने, परेड देखने का चलन बढ़ने लगा. अभी हाल में एक टीवी शो में प्रसिद्ध महिला पहलवान बहनों गीता-बबीता फोगट को सुन रहा था, तो उन्होंने बताया कि उनको पिता की ओर से साल में बस एक दिन टीवी देखने की इजाजत थी- गणतंत्र दिवस के दिन! टीवी के इस दौर में जनतंत्र का यह उत्सव बाहर निकलने से अधिक घर में बंद होने का उत्सव बन कर रह गया है.

आजकल अपनी बेटी को बड़े होते हुए देख रहा हूं, तो अपने बचपन की प्रभात फेरियों, झंडोत्तोलन, देशभक्ति के गीतों और हां, जलेबी की बहुत याद आती है. दिल्ली में उसके क्या सभी स्कूलों में छुट्टी होती है.

उसका बचपन राष्ट्रीयता के इस उत्सव से वंचित है. उसके लिए गणतंत्र दिवस महासेल में खरीदारी, मॉल में छूट का आनंद उठाते हुए खाना-पीना और सिनेमा देखने तक ही सीमित रह गया है. जिन लोगों ने छुट्टी ले ली होगी, वे कहीं होलीडे डेस्टिनेशन पर छुट्टी का आनंद उठाने निकल जायेंगे. एक-दूसरे को हैप्पी होलीडे कहते हुए!दुनिया के इस सबसे बड़े, सबसे जीवंत गणतांत्रिक देश में गणतंत्र दिवस को गणतंत्र दिवस जैसा अब फील ही नहीं होता है!

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