चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज
कैलेंडर और डायरी पर ‘अधनंगा फकीर’ कहलानेवाले गांधी नहीं, बल्कि अपने कपड़ों की चमक से चकाचौंध करनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं! खादी ग्रामोद्योग आयोग (केवीआइसी) से जुड़ी इस खबर को पढ़ कर कृष्ण-रुक्मिणी की कथा याद आयी. और, याद आयी मार्केटिंग की रीत!
पटरानियों में किसका प्रेम कृष्ण के प्रति सबसे ज्यादा है- यह साबित करने के लिए एक दिन नारद ने खेल रचा. कृष्ण को तराजू के एक पलड़े पर बैठाया और पटरानियों से कहा कि दूसरे पलड़े पर अपना कुछ ऐसा रखो कि तराजू के दोनों पलड़े का वजन बराबर हो जाये. सत्यभामा ने गहने रखे, लेकिन वे गहने हल्के पड़े. रुक्मिणी ने तुलसी का पत्ता रखा. तुलसी के पत्ते वाला पलड़ा भारी हुआ, जीत रुक्मिणी की हुई. तुलसी का वह पत्ता कृष्ण के प्रति रुक्मिणी की प्रेम-निष्ठा का प्रतीक था. मार्केटिंग के गुरु इस कथा पर क्या कहेंगे?
वे कहेंगे कि यह कथा तो हमारे बड़े काम की है. इस कथा में एक भाव (कृष्ण के प्रति प्रेम) ने एक वस्तु (तुलसी के पत्ते) के भीतर नया गुण पैदा किया. तुलसी का पत्ता सिर्फ पत्ता ना रहा, उस पर दिव्यता (कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम) का आरोहण हो गया. यही दिव्यता तुलसी के पत्ते को मार्केटियर के मतलब की चीज बनाती है. तुलसी के पत्ते की दिव्यता का पता सिर्फ उनको है, जो इस कथा को जानते हैं. सो, लोगों के दिल में इस कथा को उतार देना और कथा-रस में मगन करके तुलसी का पत्ता बेच देना मार्केंटिंग कहलायेगा.
मार्केटियर यही करते हैं. वे कथा रच कर किसी चीज में उन गुणों का आरोप करते हैं, जो उस चीज में नहीं होती. फिर शुरू होता है कथा के पसारे का काम. पसारा जितना ज्यादा होगा, प्रतीक (तुलसी का पत्ता) और उससे निकलनेवाले अर्थ (कृष्ण के प्रति प्रेम) का आपसी जुड़ाव लोगों के मन में उतना ही गहरा होगा. कथा के पसारे के साथ एक वक्त ऐसा आयेगा, जब प्रतीक और उस पर साट दिये गये अर्थ का भेद लोगों के मन में एकदम ही धुंधला हो जायेगा.
मार्केटियर आपको सोच के इसी मुकाम पर लाना चाहता है. सोच के इस मुकाम पर पहुंच कर आप प्रतीक को खरीद सकते हैं, क्योंकि आपके मन में अर्थ और प्रतीक का भेद एकमेक हो गया है. मार्केंटिंग की इसी सोच ने केवीआइसी के कैलेंडर और डायरी से गांधी को बेदखल किया है.
‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’- इस कथा के पसारे का जरिया हैं कैलेंडर और डायरी. खादी अपने सबसे छोटे अर्थ में देश के स्वाधीनता आंदोलन का वस्त्र है, सत्याग्रहियों के संघर्ष का साकार रूप! लेकिन, उसका एक व्यापक अर्थ भी है. खादी ‘स्वराज’ का संकेतक है- गांधी के इस विचार की घोषणा कि देश का हर गांव अपनी जरूरत भर के सामान खुद पैदा करे.
जरूरत की पहचान और पूर्ति की क्षमता हर आदमी में हो, ताकि वह सामानों की गुलामी करते-करते किसी शासन का गुलाम ना हो जाये- खादी इस विचार का भी प्रतीक है. आप याद करें मैथिली की यह कहावत- ‘बुढ़िया के चरखा टनमन भेल, धिया पुता के मन खन-खन भेल’. गांधी की तरह चरखा सबसे कमजोर आदमी का सबसे बड़ा सहारा है. इसलिए, केवीआइसी का काम सिर्फ चरखा से नहीं चलता. उसे चरखे के पीछे सूत कातने में लीन गांधी को रखना पड़ता है. चरखे के पीछे गांधी का होना ‘स्वराज’ के विचार को लोगों के मन में संपूर्ण बनाता है!
अगर कोई व्यक्ति चाहे कि खादी आजादी के आंदोलन का कपड़ा तो कहलाये, लेकिन स्वराज के विचार का वाहक ना रह जाये, तो वह व्यक्ति क्या करेगा? वह इन दोनों अर्थ को एक साथ ढोनेवाले प्रतीक में महीन हेर-फेर करेगा.
केवीआइसी के कैलेंडर और डायरी पर डिजायनर चरखे के पीछे चमकदार कुर्ते-पायजामे और बंडी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बैठा कर यही काम हुआ है. कथा यह परोसी जा रही है कि नरेंद्र मोदी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से ज्यादा बड़े ब्रांड हैं, क्योंकि ‘नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर खादी की बिक्री में पांच गुना की बढ़त हुई है. सो, चरखे के पीछे चाहे जिस किसी की भी तस्वीर हो, मगर काम तो गांधी की खादी को बढ़ाने का ही हो रहा है’!
बेशक! ब्रांड से बिक्री का रिश्ता है. जो ब्रांड से जितना ज्यादा बिके, वह उतना ही अच्छा. लेकिन, सारे प्रतीकों को ब्रांड में बदलना जायज नहीं है. तिरंगा कोई ब्रांड नहीं है और देश कोई कंपनी नहीं है.
तभी तो सुषमा स्वराज ने तिरंगे की डिजाइन वाला डोरमैट बेचने पर अमेजन को हड़काया. देश के लिए गांधी तिरंगा तो नहीं, लेकिन तिरंगे से कम भी नहीं. गांधी की खादी सबसे कमजोर को सबसे आगे रखते हुए उसे सबल बनाने का विचार है. चरखा के पीछे से गांधी को हटाने का मतलब है भारत के इस बुनियादी विचार को मिटाना.