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विचारधारा का अंत और दल

दीपक मलिक गांधीवादी चिंतक विचारधारा का अंत 50 के दशक में चर्चित उत्तर-आधुनिक नारा था. डेनियल बेल की यह पुस्तक स्वाभाविक रूप से शीत-युद्ध की रस्साकशी में पश्चिमी दुनिया के साथ-साथ हमारी हिंदुस्तानी जमीन को भी प्रभावित करती थी. दलविहीन लोकतंत्र, बुनियादी लोकतंत्र जैसी धारणाएं जेपी से लेकर पाकिस्तानी सैन्य शासक जनरल अय्यूब खान तक […]

दीपक मलिक

गांधीवादी चिंतक

विचारधारा का अंत 50 के दशक में चर्चित उत्तर-आधुनिक नारा था. डेनियल बेल की यह पुस्तक स्वाभाविक रूप से शीत-युद्ध की रस्साकशी में पश्चिमी दुनिया के साथ-साथ हमारी हिंदुस्तानी जमीन को भी प्रभावित करती थी. दलविहीन लोकतंत्र, बुनियादी लोकतंत्र जैसी धारणाएं जेपी से लेकर पाकिस्तानी सैन्य शासक जनरल अय्यूब खान तक को प्रभावित करती थीं.

21वीं सदी में अब विचारधाराहीन राजनीति अपने शबाब पर पहुंच गयी है. पिछले दिनों हुए चार राज्यों के चुनावों और आगामी लोकसभा चुनाव के ट्रेलर ने बहुत सारे सवालात खड़े कर दिये हैं. दरअसल, 1991 से मनमोहन सिंह का युग शुरू हो जाता है. कांग्रेस पार्टी बहुत सारे टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ व सपाट रास्तों से गुजरी है, पर वह कभी भी पूर्णत: विचारधाराहीन नहीं थी. पर 1991 में मनमोहन सिंह के नौकरशाही की जमात से केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रवेश और वित्त मंत्री का पद सम्भालने के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरसिंह राव के उन्हें खुले समर्थन ने कांग्रेस में रही-सही विचारधारात्मक प्रवृत्तियों को पूर्णत: जमींदोज कर दिया.

नतीजतन, कांग्रेस पार्टी अब एक विचारधारा-शून्य, गैर राजनीतिक मिजाज की बचकाना राजनीति और टेक्नोक्रेटिक अवधारणाओं का मंच बन गयी है. राजनीति की जगह ‘सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर’ ने ली है. एक जमाने में सपाट अध्यापकी करनेवाले प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों मोंटेक सिंह अहलूवालिया तथा अन्य अतिउत्साही नव-धनाढ्य नेतृत्व के वक्तव्यों में इसे अखंड कीर्तन की तरह जपा जा रहा है. मनमोहन सिंह की इस 23 साल की राजनैतिक यात्र ने 129 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी को पूणर्त: गैर-राजनीतिक मंच में बदल दिया है.

सोनिया गांधी ने अपने सलाहकार मंडल में ज्यां द्रेज से लेकर अरुणा राय और कुछ अन्य रेडिकल हस्तियों को जगह दी. दूसरी ओर मनमोहन सिंह को निजीकरण, वैश्वीकरण के एजेंडा की पूर्ति के लिए पूरी छूट दी. इस प्रकार से यह एक नया प्रयोग था. पर यह प्रयोग व्यावहारिक नहीं था. आम आदमी की राजनीति और नव-उदारवाद का परीक्षण, दोनों एकसाथ संभव था ही नहीं. वस्तुत: कांग्रेस में इस दौर में एक ही विचारधारा को प्रधानता मिली और वह थी मनमोहन सिंह की नव-उदारवाद की पाठ्यपुस्तकीय विचारधारा.

इस असंभव प्रयोग का नतीजा था कि गरीबी हटाने का एजेंडा भी नहीं चल पाया और दूसरी ओर जोर-शोर से पूंजीवाद बनाने का उपक्रम भी ढीला पड़ गया. कुल मिला कर, इस पूरी प्रक्रिया का प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस एक राजनीतिक दल के स्वाभाविक धर्म को छोड़ नव उदारवादी आर्थिक प्रबंधन का मंच मात्र बन कर रह गयी.

राजनीतिक पार्टी का स्वाभाविक धर्म है, जनता की जिंदगी की बेहतरी के लिए एक एजेंसी के रूप में काम करना. कांग्रेस ने अमूर्त जीडीपी वृद्धि दर को अपना मापदंड बना लिया. जीडीपी वृद्धि दर कारपोरेट बोर्ड-रूम के लिए दिलचस्प चीज हो सकती है, पर आम जनता की जिंदगी का नैराश्य वह छांट नहीं पाती है. राजनीतिक पार्टी के पास राजनीतिक कार्यक्रम होना चाहिए. इसके अभाव में कांग्रेस में राजनीतिक कार्यकर्ताओं का टोटा पड़ गया. चूंकि यह एक टेक्नोक्रेट प्रधानमंत्री के हाथ का खिलौना बन गयी. दूसरी ओर राहुल गांधी के युवा तुर्को की टोली थी, जो उम्र से तो युवा थे, पर विद्रोही तुर्क नहीं थे. वे मूलत: मनमोहनी अर्थतंत्र से उपजे अभिजात्य वर्ग के हिस्से थे.

राजनीतिक दल और जनतंत्र के द्वंद्वात्मक संबंध से एक स्वस्थ राजनीति का ढांचा बनता है. पर जनता का दिल जीतने या बेहतरी की विचारधारा बनानेवाले दल को गढ़ने की विधा बहुत हद तक धुंधली हो गयी है. आजादी की लड़ाई विदेशी सत्ता समाप्त करने के लिए लड़ी गयी, पर वैकल्पिक समाज कैसा हो, वह इस दौर में कागजी ही रह गया. आजादी के बाद बड़े पैमाने पर नेहरू को ही उत्तर-औपनिवेशिक राज्य, राजनीतिक अर्थतंत्र और राष्ट्र-राज्य बनाने का मौका मिला. गांधी तो 1934 से ही कांग्रेस की राजनीति में हाशिये पर चले गये थे. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में जनता को लामबंद करने की जरूरत हुई, तो वह पुन: बुलाये गये. पर 1945 के बाद पेथिक लारेन्स, सर स्टाफोर्ड क्रिप्स से लेकर माउंटबेटेन के साथ आजादी और तकसीम के पूरे बहस-मुबाहिसे के दौर में वह पुन: हाशिये पर चले गये.

दरअसल हम इसके पहले कि लक्ष्मण रेखाएं खीचें, हमें ‘जनतंत्र के धर्म’ का मतलब जानना होगा. आखिर क्या है यह धर्म? जनतंत्र का धर्म कारपोरेट सेक्टर के मैनेजमेंट के चश्मे से नहीं समझा जा सकता है. जनतंत्र के धर्म में ये बातें उसूली तौर पर जरूरी हैं- भिन्नता व विरोध के बावजूद मर्यादित उपायों पर भरोसा और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाएं न तोड़ना, जनता का मत हासिल करने के अलावा जनता से संवाद चलाना जिसका मकसद स्वस्थ सामूहिक मूल्यों को बनाना हो, शांतिपूर्ण ढंग से विवादों को सुलझाना, जनता के पीड़ित व हाशिये के समुदायों का शक्तिसंवर्धन करना. यदि इन मूल्यों को हम सृजित नहीं कर पाये, तो बहुमत की तानाशाही या फासीवाद का खतरा बना रहेगा. इसीलिए हमें जनता में बेहतर समाज के मूल्यों को जन-आंदोलनों के माध्यम से पहुंचाना होगा.

गांधी का 1921-22 का मजबूत असहयोग आंदोलन संभवत: भारत में सभ्य समाज, जनतंत्र और नया नागरिक समाज बनाने की ओर बेहद महत्वपूर्ण कदम था. इस तरह की कोशिशें दुनिया में बहुत कम हुई हैं. असहयोग आंदोलन से पांच वर्ष पहले 1917 की अक्तूबर क्रांति और उसमें लेनिन के नेतृत्व में नया समाज बनाने की पहल से इसकी तुलना की जा सकती है. पर दुर्भाग्य से 1923-24 तक इस इंकलाबी प्रयोग की मृत्यु हो चुकी थी, जब इंकलाब के बाद बने राज्य का दारोमदार जोसेफ स्तालिन के हाथों जा पड़ा. यह इति थी अक्तूबर क्रांति की.

राजनीतिक दल मुख्य एजेंसी हैं जनतंत्र की. भारत के दोनों मुख्य राजनीतिक दल, कांग्रेस और भाजपा इस मायने मे जनतंत्र में साङोदारी करने के मूल्य से पूरी तरह महरूम हैं. कांग्रेस ने नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को लादने का प्रयास करते हुए पिछले 100 वर्षो की आजादी की लड़ाई से अजिर्त ढांचे को बुरी तरह तोड़ डाला है. मनमोहन सिंह का 1991 में पूंजीवादी व्यवस्था और वैश्वीकरण की ओर मुड़ना इंदिरा गांधी के आपातकालीन कदम की अपेक्षा कहीं अधिक जनतंत्र विरोधी है. चूंकि इंदिरा के आपातकाल को पलटा जा सकता था, पर मनमोहन के नव-उदारवाद ने आजादी और उसके बाद अजिर्त सभी मूल सहमतियों को जमींदोज कर दिया है और अब इसे पलटना लगभग असंभव है.

कारपोरेट हिंदुस्तान बनानेवाले दल को राजनीति-शून्य बनना ही पड़ेगा. इस मायने में कांग्रेस राजनीति-शून्य हो चुकी है, क्योंकि राजनीति का मुख्य लक्ष्य जनता होती है, कारपोरेट सेक्टर की मुनाफा-वृद्धि नहीं. सोनिया गांधी को कांग्रेस के नये बुद्धिजीवियों ने समझाया कि मैनेजमेंट पद्धति से राजनीतिक दल भी चलाया जा सकता है. स्वाभाविक रूप से पार्टी के अध्यक्ष के रूप में एक गैर-राजनीतिक शीर्ष व्यक्तित्व जिसमें निर्णय की क्षमता स्वाभाविक रूप से सीमित है, एक गैर-राजनीतिक जीहुजूर नौकरशाह प्रधानमंत्री और एक निहायत अपरिपक्व उत्तराधिकारी जो एक कृत्रिम नाराजगी ओढ़े रहता है- यही तीनों कांग्रेस का प्राणकेंद्र बने.

इसका लाजिमी नतीजा था, कांग्रेस का लगातार क्षय. एक राजनीतिक दल के पास एक राजनीतिक एजेंडे का होना आवश्यक है. साथ ही उसमें राजनीतिक प्रबंधन शैली का बोध होना भी जरूरी है. राजनीतिक एजेंडा की पूर्ति के लिए राजनीतिक मैनेजरों की आवश्यकता अगली कड़ी है. कांग्रेस पार्टी के पास इन सब तत्वों का अभाव है. कांग्रेस के राजनीतिक मैनेजरों और क्षत्रपों में साहस नहीं है कि वे एक अर्थहीन मूर्तिपूजा को छोड़ कर अपना रास्ता तय करें. न ही व्यक्तिगत स्तर पर और न ही सामूहिक स्तर पर, एक अर्थहीन मूर्तिपूजा से मुक्त करा कर एक सहज राजनीतिक धर्म का पालन कराने के लिए कांग्रेस के अंदर कोई जगह नहीं है. यह एक अबूझ मूर्तिपूजकों की जमात बन चुकी है जिनका अंधविश्वास 21वीं सदी का आठवां आश्चर्य है.

भाजपा के उद्देश्य भी मूलत: गैर-राजनीतिक हैं. वे एक सर्वधर्मसमभावी संरचना के मुल्क का सांप्रदायिक अधिग्रहण चाहते हैं. भाजपा राष्ट्रीय पैमाने पर सबसे अधिक संगठित संरचना है. भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अपने राष्ट्रीय नेतृत्व को खारिज कर नरेंद्र मोदी को अपना उम्मीदवार घोषित किया. चूंकि पार्टी कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण पिछली अर्धशताब्दी से सांप्रदायिकता की राजनीति के व्याकरण के इर्द-गिर्द हुआ है, इसलिए स्वाभाविक रूप से लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, जसवंत सिंह उनकी पसंद नहीं बने. आडवाणी उग्र सांप्रदायिकता के अयोध्या प्रकरण के बाद, अपने चेहरे को धर्मनिरपेक्ष बनाने की कोशिश बदहवास होकर कर रहे थे, क्योंकि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में थे.

भाजपा में अन्य किसी बड़े नेता का उग्र सांप्रदायिक राजनीति में मोदी के मुकाबले रिकॉर्ड नहीं था. स्वाभाविक रूप से, गुजरात में मुसलिम नरसंहार के नायक मोदी कार्यकर्ताओं की पसंद बने और उन्होंने अपने पुराने केंद्रीय नेतृत्व पर हल्ला बोल कर मोदी को अपना झंडा सौंप दिया. यह एक सक्रिय पार्टी की निशानी है. भले ही वह सांप्रदायिक क्यों न हो.

पर भाजपा भी जनतंत्र के बुनियादी मूल्यों को खारिज कर अपनी राजनीति कायम करना चाहती है. इतिहास के लंबे दौर में उसे या तो अपने को बदलना होगा, जो बेहद कठिन काम है या पीछे हट जाना होगा. एक स्वस्थ जनतंत्र के खांचे में न तो कारपोरेट विधा से चलनेवाले गैर-राजनीतिक राजनीतिक दल के लिए जगह है और न ही सांप्रदायिकता की प्रत्यक्ष या परोक्ष राजनीति करनेवाले दल के लिए. तीसरे मोरचे का भानमती का कुनबा न तो गैर-कांग्रेसवाद का वाहक बन सकता है और न ही तथाकथित सेक्युलर राजनीति का.

कुछ ही दिन पहले दिल्ली में ‘आप’ ने चौंकानेवाली छलांग लगायी है. पर दिल्ली भारत नहीं है. महानगर की भीड़ और बेगानेपन में जात-पांत का बंधन टूट जाता है. ‘आप’ ने इतिहास के उस क्रम को बदला है जिसमें लोग पार्टियों की वादाखिलाफी और चुनाव बाद उपेक्षा से ऊबे हुए थे. पर महानगरों के बाहर इस देश के बड़े भूभाग, ग्रामीण दुनिया में संभवत: अपने पैर मजबूती से पसार पाना उसके लिए टेढ़ी खीर होगी. फिर भी अगर वह लगभग 40 प्रतिशत शहरी-कस्बाई जनता में पैठ बना ले, तो वह राष्ट्रीय पैमाने पर विकल्प की जगह बना सकती है. आखिर हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं कि कांग्रेस ने भी 1885 में एक महानगर बंबई से अपनी यात्र शुरू की थी.

‘आम आदमी’ उत्तर भारत के महानगरीय क्षेत्र में एक नयी सामाजिक संरचना है, जो जाति, धर्म, वर्ग के चौखटों को अतिक्रमित करती हुई दिखलायी पड़ रही है. इस परिघटना के पीछे लगभग 25 वर्षो का राजनीतिक इतिहास है जिसे वीपी सिंह ने मंडल कमीशन के क्रियान्वयन और शुरुआती दौर में कांशीराम के बहुजन आंदोलन ने चतुर्वर्णीय समाज के सम्मुख चुनौती के रूप में रखा था. स्वाभाविक रूप से सवर्ण जातियों ने अपनी प्रतिक्रिया और विरोध भी ‘मंडल बनाम कमंडल’ के माध्यम से दर्ज किया था. पर इस विभाजन प्रक्रिया को अतिक्रमित कर ‘आम आदमी’ की सामाजिक संरचना अंततोगत्वा महानगरों में बनने लगी है. यह एक ओर नव-पूंजीवाद के हमलों के खिलाफ बल देती है, तो दूसरी तरफ यह पारंपरिक हिंदू समाज के जात-पांत के समीकरण को भी बेअसर बना रही है. आगामी दिनों में भारतीय राजनीति और समाज के बहुत सारे प्रश्नों पर नयी दृष्टि और नये आंदोलनों की जरूरत पड़ेगी. आजाद भारत के 68वें साल में भारतीय जनतंत्र अपेक्षाकृत प्रौढ़ हो, इसकी अपेक्षा तो की ही जा सकती है.

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