कार्यस्थलों पर महिला कर्मचारियों के यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामले शिक्षित होते समाज की विकृत तस्वीर पेश करते हैं. दुर्भाग्य से ऐसे मामलों में देश की राजधानी अव्वल है.
इन अपराधों से निपटने में हमारी अक्षमता भी बड़ी चिंताजनक है. इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा अप्रैल से अक्तूबर, 2016 के बीच मुंबई, दिल्ली, पुणे, जालंधर, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद और लखनऊ आदि शहरों में किये गये एक सर्वे में कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आये हैं. दुर्व्यवहार के दर्ज 66.7 फीसदी मामलों पर उच्च अधिकारियों का आंख मूंद लेना और संस्थान की आंतरिक शिकायत समिति का निराशाजनक व्यवहार पीड़ित की विवशता और कानून का खुला उल्लंघन है. बदला लिये जाने या बाद के नतीजों के डर से 68.9 फीसदी पीड़ित उत्पीड़न की शिकायत दर्ज नहीं कराते हैं. आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक शर्मिंदगी, शिकायती तंत्र के लचर होने और कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए ज्यादातर पीड़ित इन्हें बर्दाश्त करने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 महिलाकर्मियों को कार्यस्थलों पर सुरक्षा का गारंटी देता है, लेकिन 65.2 फीसदी लोगों का मानना है कि कंपनियां इस कानून से अनजान हैं. निर्भया मामले से उभरे आक्रोश जनज्वार के बाद बने इस कानून से बड़ी उम्मीदें बंधी थीं. यह अधिनियम ऐसे अपराधों से निपटने के लिए आंतरिक शिकायत समिति के गठन का प्रावधान करता है. कार्यस्थलों पर कर्मचारियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करना संस्थानों की कानूनी और नैतिक जिम्मेवारी है. इन मामलों को गंभीरता से नहीं लिये जाने पर कर्मचारियों में असुरक्षा की भावना बढ़ती है और जिसका सीधा असर कामकाज पर पड़ता है.
महिला सुरक्षा को लेकर सामाजिक दायित्व और जागरूकता के लिए जहां जनमानस की जिम्मेवारी है, वहीं शिकायत निवारण तंत्र की सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करना सरकार का प्राथमिक कर्तव्य होना चाहिए. वर्ष 1979 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकृत महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त करने के लिए हुए अंतरराष्ट्रीय समझौते पर भारत ने भी हस्ताक्षर किया है. सुप्रीम कोर्ट ने महिला सुरक्षा के मुद्दे पर समय-समय पर कई दिशा-निर्देश जारी किये हैं. कानूनी प्रावधानों के लागू करने के साथ एक ऐसी सामूहिक सोच भी जरूरी है, जो महिलाओं के सम्मान और अधिकारों के प्रति संवेदनशील और जिम्मेवार हो.