।।सुरेंद्र किशोर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि सार्वजनिक जीवन को आध्यात्मिक बनाना होगा. आध्यात्मिक से उनका आशय किसी धर्म से नहीं था. आज यदि इस देश में सचमुच ऐसा हुआ होता तो न तो विभिन्न सरकारों के कर्ताधर्ता जेल जाते और न ही भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे सत्ताधारी दलों को चुनावों में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ता. और न ही भ्रष्टाचार के कारण हमारे सार्वजनिक साधनों की लूट होते जाने के कारण देश गरीब बना रहता. ऐसे में गोखले को याद कर लेना प्रासंगिक होगा.
गोखले के मूलमंत्र पर 1966 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एस राधाकृष्णन ने सत्ताधारियों को चेताते हुए कहा था कि गोखले का यह मंत्र सार्थक बन सकता है, क्योंकि आज हमारे पास अधिकार और सत्ता है. इसलिए इस मंत्र की साधना और भी अधिक जरूरी है. राधाकृष्णन ने तभी कहा था कि यह कहना मेरा काम नहीं है कि माल दबाने, घूस लेने और बेईमानी फैली होने की जो शिकायतें हैं, वे कहां तक सही हैं. पर यह बहुत जरूरी है कि सार्वजनिक काम को खरेपन, साधुता और खुद को न्योछावर कर देने की भावना से करने के ही व्रत पर अटल रहा जाये. आज ऐसे उपदेशों को सुन कर हर क्षेत्र में जड़ें जमाये बेईमान लोग हंसेंगे ही.
गोखले के निधन पर तिलक ने कहा था कि गोखले महाराष्ट्र के रत्न और भारत के हीरा थे. तिलक और गोखले में विचारों की भिन्नता थी. फिर भी तिलक ने गोखले के लिए ऐसी बात कही. गोखले न सिर्फ गांधी जी के गुरु थे, बल्कि वे जिन्ना के भी परामर्शदाता थे. एक समय खुद जिन्ना ‘मुसलिम गोखले’ बनना चाहते थे. अपनी जीवनी में गांधी ने खुद को गोखले का शिष्य बताया है. गोखले जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य थे.
गोखले का जन्म बंबई प्रेसिडेंसी के रत्नागिरि जिले के कोटलुक गांव में 9 मई 1866 को हुआ था. सिर्फ 49 साल की उम्र में 19 फरवरी 1915 को उनका निधन हो गया. इतनी ही कम उम्र में उन्होंने भारतीय राजनीति और समाज को बहुत प्रभावित किया. वे समाज सेवी, विचारक और सुधारक थे. वे शिक्षा के प्रचार के प्रबल समर्थक थे. वित्तीय मामलों की उन्हें अद्भुत समझ थी. उन्होंने सर्वेट ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य देश सेवा के लिए कार्यकर्ता तैयार करना था. वे 1905 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने. उनकी सौंवी जयंती पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि भारत के मानस को गोखले ने ही आधुनिक सांचे में ढाला है.
पिता की मृत्यु के समय गोखले सिर्फ तेरह साल के थे. वे एक गरीब परिवार से आते थे. इसके बावजूद उन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण की. धनोपाजर्न के बदले वे देश सेवा के काम में लग गये. लंबे समय तक उन्होंने रानाडे के चरणों में बैठ कर बहुत कुछ सीखा. सिर्फ तीस साल की उम्र में गोखले भारतीय अर्थ व्यय संबंधी राजकीय आयोग के समक्ष उपस्थित हुए थे. उन्होंने आयोग के समक्ष मजबूती और तर्कपूर्ण ढंग से यह बात रखी कि किस तरह हमारा देश ब्रिटिश शासन के दौरान आर्थिक और प्रशासनिक कुप्रबंधन का शिकार हो रहा है. 33 साल की उम्र में गोखले मुंबई विधान परिषद के सदस्य बन गये थे. 1903 में वे गवर्नर जनरल की काउंसिल के सदस्य बने. 1909 में वे इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने.
गोखले गांधीजी के निमंत्रण पर दक्षिण अफ्रीका गये. वहां उन्होंने गिरमिटी प्रथा के अंत के लिए काम किया. वे गांधी के पथ प्रदर्शक बने. गोखले ने तीन बार इंग्लैंड का दौरा किया. भारत में राजनीतिक सुधार के लिए ब्रिटिश जनमत बनाने का काम किया. उसके बाद ब्रिटिश शासन ने भारत के लिए मिंटो-मोर्ली सुधार सामने लाया. यह गोखले की जीत थी. उसके बाद उन्हें सरकार ने लोक सेवाओं के राजकीय आयोग का आयुक्त बना दिया. यदि वे पूरी आयु जीते तो न जाने वे और कितने काम करते.
जीवन काल में उन्हें कुछ समकालीन राजनीतिक नेताओं की घोर आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. ऐसा उनके नरमपंथी होने के कारण हुआ. दरअसल उनके गुरु ने उन्हें नरमपंथी होना सिखाया था, जिस पर वे अंत तक अटल रहे. वे भारत में तब पनप रही जाति-धर्म एकता भावना को स्वराज्य चलाने की योग्यता की पहली शर्त मानते थे. वे कहते थे कि इस भावना की नींव तो पड़ गयी है, पर इमारत बनाने की परवाह हमने नहीं की. यह समस्या आज भी कायम है, जबकि गोखले के निधन के सौ साल होने को हैं.