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आईने के सामने खड़ा अमेरिका!

अपूर्वानंद प्रोफेसर, दिल्ली विवि राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने अमेरिका को जैसे आईने के सामने खड़ा कर दिया है. पिछले चार दिनों से अमेरिका में जगह-जगह ट्रंप के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं. अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया में ट्रंप की घोषित नीतियों के लागू होने को लेकर एक […]

अपूर्वानंद

प्रोफेसर, दिल्ली विवि

राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने अमेरिका को जैसे आईने के सामने खड़ा कर दिया है. पिछले चार दिनों से अमेरिका में जगह-जगह ट्रंप के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं. अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया में ट्रंप की घोषित नीतियों के लागू होने को लेकर एक दहशतयुक्त आशंका भर गयी है.

एक अश्वेत को दो बार राष्ट्रपति के रूप में चुन कर कल तक खुद को सभ्य माननेवाले अमेरिकी समाज को अब यह मालूम हुआ कि वह एक घोर स्त्री विरोधी, बलात्कार को मजे की चीज माननेवाले, मुसलिम, अश्वेत और गैर अमेरिकियों के प्रति घृणा के मूर्तिमान रूप की पूजा करनेवाला अबोध समुदाय है. अमेरिका एक प्रकार के आत्मसमीक्षा और आत्मभर्त्सना के दौर से गुजर रहा है. एक तरह से यह उसके स्वास्थ्य का लक्षण भी है. वह कम-से-कम यह सोच तो रहा है कि आज से नौ साल पहले बराक ओबामा को अपना नेता चुन कर उसने जो छलांग लगायी थी और जिस ऊंचाई पर पहंुच गया था, उससे वह इतना नीचे कैसे गिर सकता है.

हिलेरी क्लिंटन शिक्षित, अभिजात्य अमेरिकियों की सहज प्रतिनिधि मानी गयी थीं. डेमोक्रेटिक पार्टी ने बर्नी सैंडर्ज को उनके मुकाबले विध्वंसक उम्मीदवार माना, जो उदार अमेरिकी समाज के सामने कुछ अधिक क्रांतिकारी सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रम रख रहे थे. इसलिए जब देखा गया कि पार्टी में क्लिंटन की तुलना में उन्हें कहीं अधिक समर्थन मिल रहा है, तो अमेरिका के व्यवस्थावादी सक्रिय हो गये. व्यवस्था के सताये हुए और उससे बाहर कर दिये गये समुदाय के जिस असंतोष को सैंडर्ज आवाज दे रहे थे, क्लिंटन कभी भी उसकी प्रवक्ता नहीं हो सकती थीं.

उन्हें कॉरपोरेट समर्थक माना जाता है. वे गरीबों की समर्थक नहीं मानी जातीं. वे अमेरिका के बाहर भी किसी शांतिवादी नजरिये के लिए नहीं जानी जाती हैं. कहा जाता रहा है कि उनकी उम्मीदवारी ने इस बड़े तबके को, जो सैंडर्ज में आशा देख रहा था, उनसे विरक्त कर दिया.

लेकिन, अमेरिका के लोगों ने ऐसे व्यक्ति को क्यों चुन लिया, जो उनकी स्वास्थ्य सुरक्षा को खत्म करने की बात कर रहा था, जो अमीरों वाले टैक्स में कटौती की बात कह रहा था, जो सामाजिक सुरक्षा को खत्म करने के उपायों का ऐलान कर रहा था? क्या इनके मुकाबले ट्रंप का श्वेत, स्त्री, मुसलिम, आप्रवासी विरोधी घृणा का प्रचार अधिक असर कर रहा था?

ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार में सभ्यता के सारे नियमों की धज्जियां उड़ा दीं. लोग यह देख कर हैरान थे कि जो व्यक्ति अमेरिका जैसे सुशिक्षित समाज का नेता बनने का दावा पेश कर रहा है, वह नफरत और गलाजत को इस तरह उगल सकता है!

ट्रंप के वकीलों और उनके साथ काम कर चुके लोगों ने खुल कर कहा कि यह शख्स धड़ल्ले से झूठ बोलता है, धोखे और प्रपंच से इसने अपना कारोबार खड़ा किया है, खुद ट्रंप ने भी शान से कहा कि सारे नियम-कायदे तोड़ कर टैक्स की चोरी करते हुए व्यापार करने की हिम्मत की तारीफ की जानी चाहिए, इसमें शर्मिंदा होने और माफी मांगने की क्या बात है!

अमेरिकी समाज का अध्ययन करनेवाले राजनीतिशास्त्रियों का कहना है कि काफी पहले से समाज में ये प्रवृत्तियां पनप और बढ़ रही हैं. उन्होंने शोध के जरिये यह देख लिया था कि इन प्रवृत्तियों के समानुपात में ट्रंप का समर्थन बढ़ रहा था. तो, सचेत होने के जो कारण मौजूद थे, उन पर ध्यान नहीं दिया गया !

अमेरिकी समाज में हिंसा की घटनाओं में जो बढ़ोतरी देखी गयी है, उसका कारण इसलामी दहशतगर्दी नहीं, वह उसके भीतर, उसके विकास के कारण पैदा हो रही बेचैनी है, जिस पर राजनीतिक दलों या शिक्षा संस्थाओं ने कभी पर्याप्त विचार नहीं किया.

ट्रंप की जीत को अमेरिकी समाज के भीतर अरसे से जमा हो रहे घृणा के मवाद के बह निकलने की तरह देखा जाना चाहिए.

इसे देखने से घिन भले आये, लेकिन इससे इनकार अब नहीं किया जा सकता कि यह शरीर अंदर से सड़ रहा था. ट्रंप की जीत का एक सिरा कुछ महीना पहले ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन से अलग होने के निर्णय से जुड़ता है, तो दूसरा सिरा भारत के दो साल पहले हिंदू राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी दल की अभूतपूर्व विजय से. आश्चर्य नहीं कि दुनिया भर के प्रतिक्रियावादियों में इस जीत से भारी उत्साह देखा जा रहा है. इसराइल के एक प्रमुख मंत्री ने तुरंत कहा कि अब फिलिस्तीन राज्य का सवाल ही नहीं उठता.

हालांकि एक समझ यह है कि सत्ता मिलने के बाद ट्रंप वह सब नहीं करेंगे, जिसकी धमकी वे देते रहे हैं. यह तो उन्होंने लोगों को सिर्फ अपनी ओर खींचने और सत्ता हासिल करने के लिए किया था.

रास्ता बदलने पर इनके समर्थक नाराज नहीं होंगे, क्योंकि उन्होंने ट्रंप को चुना है, मान कर कि वह अपने आप में इलाज हैं. खुद ट्रंप ने भी अपने विरुद्ध हो रहे प्रदर्शनों के बाद कहा है कि वे पूरे अमेरिका के राष्ट्रपति होंगे, सबको साथ लेकर चलेंगे. यदि ऐसा नहीं हुआ, तो घृणा भरे कदमों की कीमत अमेरिका को तो चुकानी ही होगी, दुनिया में उसके प्रभुत्व के कारण जिन्होंने ट्रंप को नहीं चुना, वे भी यह कीमत चुकाने को मजबूर होंगे.

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