प्रकृति की नियमितता अनुशासन का पाठ पढ़ाती है. सृष्टि के चराचर प्राणी इसी नियमितता के साथ प्रतिबद्ध हैं. मानव जीवन में संवादों और एक-दूसरे को पहचानने की प्रबल क्षमता है, जो इसे अन्य सजीव प्राणियों से अलग करती है. जीवन की आपाधापी में हम इतना उलझ गये हैं कि प्रकृति में अल्प अंतराल पर होनेवाले मौसमी परिवर्तनों को न तो देख पाते हैं और न समझ पाते हैं. कभी बरसाती बीमारियों से त्रस्त रहते हैं, तो कभी सुविधाओं के अतिक्रमण से. बादल गरजते हों या बरसते हों, डरना हमारी फितरत में है. अपने दिमाग को बेशुमार जानकारियों से भर देने के बाद भी प्रकृति के रहस्य को समझना मनुष्य के वश में नहीं है.
पिछले दिनों घर के पीछे की बंद खिड़की खोली, तो देखा कि साल भर से मरणासन्न पड़े हुए हरसिंगार के गाछ में से महमह सुगंध आ रही है. धरती पर गिर कर आशुतोष के जटाजूट का सिंगार करनेवाले शिवली के खूबसूरत फूल पूरे वातावरण को सुगंधित कर रहे हैं. कुछ दूर और निगाहें गयीं, तो देखा वीरान खेतों में कांस के फूल झूम-झूम कर हवा से बातें कर रहे हैं. इसी इलाके में पिछले दो साल से साइबेरियन क्रेन भी आते हैं, जो अभी तो नजर नहीं आ रहे, पर हो न हो जरूर ये परदेसी अपनी लंबी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर होंगे. शरद अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ हमारी दहलीज पर दस्तक देने को तैयार है, लेकिन हम हैं कि अभी भी पतझड़ के पीले-सूखे पत्तों को समेट रहे हैं. शहर के बीचोबीच तिब्बती मार्केट के तंबू तनने लगे हैं और शॉल-सूट बेचनेवाले इक्के-दुक्के कश्मीरी फेरीवाले भी दिखने लगे हैं.
हर नये दिन में जिंदगी का एक नया रंग निखरता है. हम प्रकृति के सान्निध्य में रहते हैं, इसलिए यह हम पर निर्भर करता है कि हम कैसे उन रंगों को अपने जीवन में उतारें? वास्तव में, भविष्य की अनिश्चितता के साथ जो बात हमें परेशान करती है, वह भावनाओं की असंतुष्टि से उठनेवाली पीड़ा है. हम पैसों से संपन्न अवश्य हुए हैं, पर भावनात्मक संतुलन बिठाये रखने में बहुत विपन्न हुए हैं. अपने व्यक्तित्व में हम जरा सा भी बदलाव नहीं चाहते. शीत, ग्रीष्म और पावस का क्रमिक परिवर्तन जिन विविधताओं का समावेश करता है, वैसी ही विविधता हमारे व्यक्तित्व के निर्माण के लिए आवश्यक है. पर, हम तो अतीत को पकड़े बैठे हैं. विगत में से सुख के सफहे फाड़ कर सुख को पढ़ते हैं और आगत में केवल सुख लिखते हैं.
वर्तमान में क्यों न हम अपने आस-पास की चीजों से खुशियां तलाशें? बिना खुशी के सृजन संभव नहीं. जो मजबूरी में किया जाये, वह काम है और जो खुशी से किया जाये, वह कला है. कार्यात्मक संतुष्टि और खुशी के सामंजस्य से हुआ सृजन शाश्वत होता है.
किसानों का जीवन खुद में एक संदेश है. अच्छी बारिश व गरमी के बीच लहलहाती फसल ने उनके चेहरे की मुस्कान को बढ़ा दी है. प्रकृति का तप मानव को जीवन-राग की साधना का पथ दिखलाता है. किसान न तो भंडार-गृह भरने की खुशी देर तक मना सकता है और न ही अकाल पड़ने के गम में देर तक झुलस सकता है. जीवन-राग को सही मायने में गुनगुनानेवाले इन किसानों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. आइए, फिलवक्त तो शरद के रंगों में घुल कर ठंडी हवा से मन के ताप को शीतल करें और फिर मन के महाकाश में शरद की फिजाओं के साथ दशहरे के विजय पर्व का सार समेट कर एक संपूर्ण व्यक्तित्व के प्रतिबिंब का दस्तावेज ताउम्र सुरक्षित कर लें. प्रकृति कभी बेरंगी नहीं होती, इसलिए हर काल और परिवेश में रंग घोलना सीख लें.
कविता विकास
स्वतंत्र लेखिका
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