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यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं

अनुराग चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार बड़बोले राजनेता ‘अभिव्यक्ति’ के नाम पर बलात्कार जैसे आपराधिक कृत्य पर पीड़िता से सहानुभूति के बोल बोलने की जगह, पीड़ित परिवार में सुरक्षा का बोध कराने की जगह, जब पूरी तरह असंवेदनशील हो जायें, तो सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ता है. भारत के नागरिकों को संविधान ने ‘अभिव्यक्ति’ की आजादी […]

अनुराग चतुर्वेदी

वरिष्ठ पत्रकार

बड़बोले राजनेता ‘अभिव्यक्ति’ के नाम पर बलात्कार जैसे आपराधिक कृत्य पर पीड़िता से सहानुभूति के बोल बोलने की जगह, पीड़ित परिवार में सुरक्षा का बोध कराने की जगह, जब पूरी तरह असंवेदनशील हो जायें, तो सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ता है. भारत के नागरिकों को संविधान ने ‘अभिव्यक्ति’ की आजादी दी है, पर इस आजादी का बेजा उपयोग अब वे लोग करने लगे हैं, जो सत्ता में हैं, सरकार में हैं, विधायिका में हैं और सार्वजनिक जीवन में हैं. राजनीतिक दलों के प्रमुख के रूप में भी वे अभिव्यक्ति के नाम पर क्षेत्रीयता, भाषाई द्वेष और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने में एक मिनट की देरी नहीं लगाते हैं.

नेता और उनके बोलों को देखें, तो इन नेताओं की मानसिकता प्रचार और चर्चा में सदैव एवं सनातन बने रहने की चाहत बनी रहती दिखायी देती है. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति सी नागपन्न ने उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान को नोटिस जारी कर उनसे पूछा है कि क्यों नहीं आपके खिलाफ आपराधिक मामला दायर किया जाये? आजम खान ने बुलंदशहर में हुए सामूहिक बलात्कार के जघन्य कांड को विरोधियों की साजिश बताया था. अदालत ने शासन से यह भी जानना चाहा है कि इस मामले को दिल्ली में चलाने पर उसकी क्या राय है?

अदालत ने टिप्पणी की- सत्ता पर बैठे व्यक्ति इस प्रकार का बयान कैसे देते हैं? बलात्कार पीड़िता 14 वर्षीय लड़की के वकील ने सुप्रीम कोर्ट को कहा, ‘बलात्कार की घटना के बाद आजम खान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और याचिकाकर्ता का सार्वजनिक अपमान करते हुए कहा कि बलात्कार की घटना राजनीतिक षड्यंत्र था और बलात्कार उसी का परिणाम था.’

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस विषय का परीक्षण करने का निर्णय लिया है कि क्या मंत्रियों या अन्य किसी ऐसे व्यक्ति को, जो सार्वजनिक पद पर हैं, क्या ऐसे आपराधिक कृत का राजनीतिकरण करने का अधिकार है? ऐसी टिप्पणी से क्या पीड़िता को न्याय पाना कठिन नहीं हो जायेगा?

अदालत ने कुछ सवालों को जाने-माने वरिष्ठ वकील एफ नरीमन की मदद से जानने और उसे कानून के दायरे में लाने का यत्न किया है- ‘क्या बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, हत्या और इसी तरह के जघन्य अपराधों के बारे में पीड़ित/पीड़िता द्वारा प्रथम अपराध रपट दर्ज कराने के बाद किसी व्यक्ति को, जो (सार्वजनिक पद पर बैठा है) सत्ता को नियंत्रित करता है, यह अधिकार है कि वह यह कहे कि यह राजनीतिक षड्यंत्र है? और वह भी तब, जबकि उसका किये गये अपराध से कोई लेना-देना न हो?’

‘क्या राज्य, जिसका पहला कर्तव्य नागरिकों की सुरक्षा करना है, को इस तरह की टिप्पणियां स्वीकार करनी चाहिए? क्योंकि, ये टिप्पणियां पीड़िता के मन में न्यायतंत्र के प्रति शंका उत्पन्न कर देगी.’

अदालत यह भी देखेगी कि क्या इस तरह के बयान, प्रेस कॉन्फ्रेंस और टिप्पणियां अभिव्यक्ति की श्रेणी में आते हैं या संविधान द्वारा दिये गये अधिकार का उल्लंघन करते हैं. क्या इस प्रकार की टिप्पणियां संवैधानिक संवेदनशीलता या संवैधानिक करुणा के सिद्धांत के खिलाफ हैं, क्योंकि ये टिप्पणियां खुद के बचाव के लिए नहीं हैं? सुप्रीम कोर्ट अब रोज टीवी, ट्विटर और फेसबुक पर जिम्मेवार राज्य को चलानेवालों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जांचने का निर्णय कर रहा है. यह स्वागतयोग्य कदम है.

जिस राज्य को अपने नागरिकों को सुरक्षा देनी चाहिए, कानून-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाना चाहिए, वही जब जिम्मेवारियों काे भूलने लगे, तो न्यायपालिका का यह कदम महत्वपूर्ण है.

इसी क्रम में पर्यटन मंत्री महेश शर्मा की टिप्पणी को भी देखा जाना चाहिए, जो विदेशी पर्यटकों को स्कर्ट नहीं पहनने और रात में अकेले नहीं घूमने की सलाह दे रहे हैं. यह मोरल पुलिसिंग तो है ही, साथ ही राज्य का अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ना भी है.

राज्य के कर्ताधर्ता अपनी जिम्मेवारी से अलग होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार के माध्यमों में अपना नाम बनाये रखने के लिए, टीवी डिबेट और प्राइम टाइम में छा जाने के लिए भी जानबूझ कर विवादास्पद बातें करते हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति की आजादी कतई नहीं माना जा सकता है.

दलित सांसद उदित राज ने अपने एक ट्वीट में सुझाया कि किस प्रकार बीफ खाने के कारण जमैका के धावक उसेन बोल्ट ओलिंपिक में नौ पदक जीतने में सफल रहे. उदित राज भी जिस पार्टी में हैं, वह गौमांस खाने और खिलाने के विरोध में है. ऐसे में समाज की भावनाओं, विशेषकर हिंदू समाज की भावनाआें को, चोट पहुंचाने का आरोप उदित राज की पार्टी भाजपा के कुछ समर्थक और संगठनों ने राज पर लगाया.

राजनेताओं की यह अभिव्यक्ति किसी-न-किसी नियंत्रण की जरूरत महसूस करने लगी है. राजनीतिक दलों की जिम्मेवारी होती है कि वे बिना ब्रेक की गाड़ी चलानेवाले अपने नेताओं को ठीक करें, लेकिन इसकी जगह वे मंत्री बना दिये जाते हैं. यदि इन बड़बोले नेताओं को रोका नहीं गया, तो ये कानून-व्यवस्था से आम नागरिक का भरोसा उठा देंगे.

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