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टैक्स से आजादी, हुई बरबादी

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.कॉम संधिकाल की बेला है, न जाने कितनी लंबी खिंचेगी. यह नखलिस्तानों की तलाश नहीं, मरीचिकाओं में भटकने का दौर है. हकीकत कुछ और, मगर बताया जाता है कुछ और. हर टैक्स मूलतः जनता से धन छीन कर सत्ता की तिजोरी भरता है. सरकार अगर जनोन्मुखी न हो, तो जनता का इससे […]

अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.कॉम
संधिकाल की बेला है, न जाने कितनी लंबी खिंचेगी. यह नखलिस्तानों की तलाश नहीं, मरीचिकाओं में भटकने का दौर है. हकीकत कुछ और, मगर बताया जाता है कुछ और. हर टैक्स मूलतः जनता से धन छीन कर सत्ता की तिजोरी भरता है.
सरकार अगर जनोन्मुखी न हो, तो जनता का इससे प्रत्यक्ष रूप से कोई भला नहीं होता, खासकर तब, जब उसे उसकी आय या मुनाफे पर नहीं, बल्कि वस्तुओं व सेवाओं पर किये गये व्यय पर लगाया गया हो. ऐसे अप्रत्यक्ष या परोक्ष टैक्स को प्रतिगामी माना गया है, क्योंकि यह कंगाल से लेकर अरबपति तक पर समान दर से लगता है. लेकिन पाखंड की पराकाष्ठा देखिये कि सत्ताधारी नेताओं ने बिजनेस करने की आसानी के लिए लाये जा रहे वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) को गरीब जनता का उद्धारक बता डाला. इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजन और संघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद तक की दुहाई दे डाली.
आज 70वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हर देशवासी को सत्तातंत्र के इस पाखंड, हकीकत और विसंगति को समझना होगा. तभी हम सभी राष्ट्र-निर्माण में अपनी सुसंगत भूमिका निभा पायेंगे. आपको आश्चर्य होगा कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबी और महान सांख्यिकीविद व अर्थशास्त्री प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने ऐसी संकल्पना पेश की थी, जिसके मूल में था कि भारतीय अवाम को कोई टैक्स देने की जरूरत ही न पड़े. उन्होंने 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की जरूरत व उपयोगिता को रेखांकित किया था कि तब से 15 साल बाद, यानी 1971 से यह उपक्रम सरकार को इतना लाभांश देंगे कि आम भारतीय जन पर टैक्स लगाने की कोई जरूरत नहीं होगी.
लेकिन, समय के साथ चीजें कैसे बदलती हैं, इसका सटीक उदाहरण हैं हमारे सरकारी उपक्रम. वैसे, आज इन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम कहना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसमें कोई सार्वजनिक या पब्लिक तत्व नहीं बचा है.
ये विशुद्ध रूप से सरकारी अफसरों, मंत्रियों और सत्ताधारी नेताओं की सैरगाह बन गये हैं. बहुत सारे मंत्रालय आज इनकी बदौलत बचे हुए हैं. मसलन, एयर इंडिया न हो तो नागरिक उड्डयन मंत्रालय या मंत्री की क्या जरूरत रह जायेगी? ओएनजीसी, सेल, भेल, गैल, इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, कोल इंडिया और एनएमडीसी जैसी कंपनियों ने न जाने कितने सरकारी अफसरों व नेताओं का बोझ उठा रखा है. फिर भी मुनाफे में है, तो यह किसी अजूबे से कम नहीं.
वित्त मंत्रालय ने इसी साल मार्च में नीति आयोग को घाटे में चल रहे या बीमार हो चुके 74 सरकारी उपक्रमों की एक लिस्ट देकर कहा था कि वह जांच-परख के बाद बताये कि इनका क्या किया जाये.
आयोग ने सिफारिश की है कि इनमें से 26 को बंद कर दिया जाये और 16 की रणनीतिक बिक्री कर दी जाये. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चालू वित्त वर्ष 2016-17 के बजट में सरकारी कंपनियों के विनिवेश से 56,500 करोड़ रुपये और रणनीतिक बिक्री से 20,500 करोड़ रुपये पाने का लक्ष्य रखा है. जेटली ने हाल ही में कहा है कि बंद किये जानेवाले सरकारी उद्यमों की जमीन बेची जा सकती है. आयोग की सिफारिश मानते हुए सरकार अब तक चार सरकारी कंपनियां बंद कर चुकी है. ये हैं- एचएमटी चिनार वॉचेज, एचएमटी वॉचेज, एचएमटी बियरिंग और तुंगभद्रा स्टील प्रोडक्ट्स लिमिटेड.
पिछले बीस सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का घाटा बढ़ता ही गया है. वित्त वर्ष 1995-96 में देश में 102 बीमार सरकारी कंपनियों का सम्मिलित घाटा 5,188 करोड़ रुपये था. वित्त वर्ष 2014-15 तक बीमार सरकारी कंपनियों की संख्या तो घट कर 77 पर आ गयी.
लेकिन उनका सम्मिलित घाटा 27,360 करोड़ रुपये पर पहुंच गया. उक्त बीस सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को कुल मिला कर 2.58 लाख करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है. जाहिर तौर पर उनका यह घाटा हमारे-आपके प्रत्यक्ष व परोक्ष टैक्स से पूरा किया जाता है.
सवाल है कि नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र के जिन उपक्रमों को आधुनिक भारत का मंदिर बताया था, वे आज घाटे की कंदराओं में कैसे धंस गये? समाजवाद का नाम जपते-जपते वे सरकारी शाहंशाही की ऐशगाह कैसे बन गये? हर दिन ढाई करोड़ यात्रियों को ढोनेवाली भारतीय रेल के दसियों हजार करोड़ रुपये के घाटे की भरपाई जनता के टैक्स से क्यों करनी पड़ती है?
वैसे, यह भी सच है कि इन्हीं के बीच सरकारी उपक्रम भारतीय डाक का मुनाफा नौगुना बढ़ा है. भारतीय डाक को आज अगर संपूर्ण बैंक बनने का लाइसेंस मिल जाये, तो अपने अनुभव व व्यापक तंत्र की बदौलत वह चंद महीनों में भारतीय स्टेट बैंक को पीछे छोड़ कर देश का सबसे बड़ा बैंक बन जायेगा. लेकिन, उसे संपूर्ण बैंक के बजाय पेमेंट बैंक बनने की ही इजाजत क्यों दी जाती है?
बैंकों की बात चली है, तो बता दें कि हमारे सरकारी बैंकों ने पिछले ग्यारह सालों में 2.52 लाख करोड़ रुपये के ऋण बट्टेखाते में डाले हैं. वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2005-06 में यह रकम 8799 करोड़ रुपये थी, जबकि 2015-16 में 59,547 करोड़ रुपये पर पहुंच गयी. सरकारी कंपनियों और बैंकों की क्या जुगलबंदी है! उनका बीस साल का घाटा 2.58 लाख करोड़ रुपये और इन्होंने ग्यारह साल में 2.52 लाख करोड़ रुपये के ऋण अपने खातों से चलता कर दिये.
अंत में गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ब्रह्मराक्षस की चंद पंक्तियां- ‘पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा/ वह कोठरी में किस तरह अपना गणित करता रहा, और मर गया… वह सघन झाड़ी के कंटीले तम-विवर में मरे पक्षी-सा विदा ही हो गया/ वह ज्योति अनजानी सदा को खो गयी/ यह क्यों हुआ! क्यों यह हुआ!’
आप भी सोचिये, स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हम सब मनन करते हैं कि जनता को टैक्स से आजादी दिलाने के लिए बने सार्वजनिक उपक्रम अंततः संत्रास के सबब क्यों बन गये! ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी आज अगर गोरखपुर से लेकर शिंदरी व बरौनी तक के बंद पड़े खाद कारखानों को खोलने की बात करते हैं, तो हमें फौरन सोचना चाहिए कि टाटा केमिकल्स आखिर अपना बबराला का यूरिया संयंत्र क्यों बेच रही है!

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