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बिछड़े सब बारी-बारी, खेती-बारी

अिनल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काॅम आखिर कोई कितना इंतजार करता! देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन कृषि नहीं.’ मगर, आजादी से लेकर कृषि को इंतजार करते-करते अब सात दशक होने जा रहे हैं. वह अब भी भगवान भरोसे है. इंद्रदेव नाराज, तो सूखे की त्रासदी और […]

अिनल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
आखिर कोई कितना इंतजार करता! देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन कृषि नहीं.’ मगर, आजादी से लेकर कृषि को इंतजार करते-करते अब सात दशक होने जा रहे हैं. वह अब भी भगवान भरोसे है. इंद्रदेव नाराज, तो सूखे की त्रासदी और खुश तो बहुत बड़े इलाके में बाढ़ की तबाही. जिनके बरदाश्त करने की हद चुक जाती है, वे इस दुनिया को जबरदस्ती सलाम बोल देते हैं और जिनमें लड़ने का शाश्वत इंसानी जज्बा है, वे खेती-बारी छोड़ कर कहीं और निकल जाते हैं.
माना कि मनरेगा आने के बाद यह पलायन रुका है. लेकिन, अब भी बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश से जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा व महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली, मुंबई व कोलकाता तक जानेवाली ट्रेनें चंद महीनों को छोड़ कर खेती-किसानी से बिछड़े मजदूरों से भरी रहती हैं.
अब तो लोग केरल व तमिलनाडु तक मार करने लगे हैं. चार साल पुराने एक अध्ययन के मुताबिक, 1991 से 2011 के बीच करीब डेढ़ करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी. उस दौरान प्रति दिन खेती छोड़नेवाले किसानों की औसत संख्या 2,035 थी. इसमें खेती की पस्त हालत से गांव-गिरांव छोड़नेवाले खेतिहर – मजदूर शामिल नहीं हैं. लेकिन, भागने से कहीं कोई समस्या सुलझती है भला!
2011 की जगणना के अनुसार, हमारी आबादी का 53 प्रतिशत हिस्सा खेती – किसानी पर निर्भर था. अनुमान है कि यह अनुपात अब घट कर 47 प्रतिशत के आसपास आ चुका है. दरअसल, आज मुट्ठी भर विशालकाय काश्तकारों को छोड़ दें, तो कोई भी किसानी नहीं करना चाहता. चपरासी या चौकीदार तक की नौकरी मिलने पर हर जाति का किसान राजी – खुशी गांव छोड़ देता है. मुश्किल यह है कि देश में रोजगार पैदा नहीं हो रहे. इसलिए एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार, साल 2030 में जब भारत की आबादी चीन से ज्यादा हो जायेगी, तब भी हमारी लगभग 42 प्रतिशत आबादी मुख्यतया कृषि पर निर्भर रहेगी.
यह भयंकर घुटन व त्रासदी की स्थिति होगी, क्योंकि अमेरिका व यूरोप के विकसित देशों में कृषि पर निर्भर आबादी मात्र तीन से चार प्रतिशत है. यही सामान्य चलन भी है, क्योंकि आधुनिक संसाधनों के आ जाने से कृषि की उत्पादकता बढ़ जाती है और वहां कम लोगों के काम करने की जरूरत पड़ती है. वैसे भी, आर्थिक विकास के साथ अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान बराबर कम होता जायेगा और निर्माण व सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ता जायेगा. इसलिए इस पर आंसू बहाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इतिहास का यही चक्र और सबक है.
केंद्र की सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी देश की कड़वी जमीनी हकीकत से भलीभांति वाकिफ है. करीब महीनेभर पहले पुणे की एक सभा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था, ‘आज देश के बहुसंख्य लोग कृषि पर निर्भर हैं. हालांकि, कृषि क्षेत्र फायदेमंद नहीं है और इसलिए कृषि पर निर्भरता को कम करने के लिए स्किल इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया जैसी योजनाएं शुरू की गयी हैं.’
सरकार ने कृषि के लिए अलग से फसल बीमा योजना, मिट्टी का हेल्थ कार्ड, नीम युक्त यूरिया, सिंचाई योजना, मोर क्रॉप पर ड्रॉप और खाद्य प्रसंस्करण जैसे उद्योगों को 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाजत दे दी है. लेकिन, कृषि क्षेत्र की जड़ता और उसकी भगवान – भरोसे होने की स्थिति टूटती क्या, दरकती हुई भी नहीं दिख रही है.
कारण बड़ा साफ है. सरकार जहां – तहां पैबंद लगाने का काम कर रही है. समग्र समाधान या तो उसकी प्राथमिकता में नहीं है या उसे कुछ सूझ नहीं आ रहा. इसमें भी सूझने की बात समझ से परे है, क्योंकि देश के भीतर और देश से बाहर इतने विशेषज्ञ भरे पड़े हैं, जो समर्पित भाव से सरकार के साथ काम करने को तैयार हैं. सरकार के पैबंदी नजरिये के कुछ उदाहरण पेश हैं.
उसने नीम कोटेड यूरिया तो पेश कर दिया, लेकिन इस पर गौर नहीं किया कि नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम उर्वरकों की कीमतों में असंतुलन होने की वजह से अब भी किसान यूरिया का अनावश्यक प्रयोग करते हैं. साथ ही आंकड़े गवाह हैं कि यूरिया अवैध तरीके से बड़ी मात्रा में पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार से नेपाल और पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश चली जा रही है. दूसरा उदाहरण – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल में मोजांबिक के दौरे पर गये, तो वहां से दाल पैदा करने का करार करके आ गये. आपको जान कर आश्चर्य होगा कि हम हर साल लगभग 70,000 करोड़ रुपये खाद्य तेलों के आयात पर खर्च करते हैं.
असल में, किसान और बाजार का रिश्ता सीधा, सरल और पारदर्शी बनाने की जरूरत है. देश में जहां कहीं भी कृषि उत्पादों पर व्यापारियों का शिकंजा तोड़ने और किसानों को बिना बिचौलिये के सीधे उपभोक्ता तक अपनी फसल पहुंचाने के लिए मंडी कानून को बदला जा रहा है, वहां एक ताकतवर राजनीतिक लॉबी विरोध में उतर आ रही है. इस लॉबी को तोड़ना जरूरी है.
साथ ही हमें विदेश से वाजिब सीख लेने की जरूरत है. मसलन, हम चीन की तरह मैन्युफैक्चरिंग हब बनना चाहते हैं. लेकिन, यह जानने – सीखने की कोशिश नहीं करते कि भारत से जोत का आकार आधा और कुल कृषि भूमि कम होने के बावजूद चीन हमसे दोगुना खाद्यान्न उत्पादन कैसे कर ले रहा है?
फसल बीमा तो किसान को प्राकृतिक आपदा से ही बचा सकती है. सिंचाई से ही समस्या सुलझ जाती, तो नहरों के जाल से पटे पंजाब का किसान परेशान नहीं होता. कर्ज देना कोई समाधान होता, तो आज देश के हर कोने का किसान चहक रहा होता. उन्नत बीज भी चाहिए और उन्नत टेक्नोलॉजी भी. लेकिन, सब धान बाइस पसेरी तौलने से काम नहीं चलेगा.
देश की 85 प्रतिशत कृषि जोतों का आकार पांच एकड़ से कम है. दो दशक पहले श्रीपाद अच्युत दाभोलकर साबित कर गये हैं कि कैसे आधा एकड़ जमीन में भी जैविक खेती से चार लोगों का परिवार खुशहाल रह सकता है. इसलिए इन 85 प्रतिशत किसानों को जैविक खेती के लिए प्रेरित किया जा सकता है. बाकी जिन दो – चार प्रतिशत लोगों के पास ज्यादा जमीन है, वे बाकायदा कंपनी बना कर कॉरपोरेट व व्यावसायिक खेती में उतर सकते हैं.

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