शुक्रवार की रात तुर्की में सेना के एक धड़े द्वारा तख्तापलट की कोशिश हमारे समय की एक महत्वपूर्ण घटना है. अरब और यूरोप अलग – अलग कारणों से संकट के घेरे में हैं और इस संकट के सिरे कहीं – कहीं आपस में जुड़े भी हुए हैं. यूरोप और अरब के बीच भौगोलिक और राजनीतिक सेतु के रूप में तुर्की मौजूदा माहौल का एक खास किरदार है. ऐसे में उसकी आंतरिक हलचल एक वैश्विक चिंता का विषय है. राष्ट्रपति एर्दोआं लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित नेता हैं, पर उनकी अधिनायकवादी महत्वाकांक्षाओं से एक बड़ा तबका नाराज रहता है. इसी तरह से उनकी विदेश नीति के कारण भी कई देश उनका विरोध करते रहे हैं.
लेकिन, इस स्थिति में भी सेना के एक गुट द्वारा उन्हें हटाये जाने का जैसा विरोध तुर्की में दिखा, वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसे को बहुत मजबूत करता है. सेना की कार्रवाई के तुरंत बाद लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर आ गये और लोकतांत्रिक सरकार के पक्ष में आवाज बुलंद करने लगे. इनमें भारी तादाद उन लोगों की थी, जो एर्दोआं के विरोधी ही नहीं हैं, बल्कि कई सालों से उनके दमन के शिकार भी रहे हैं.
लेकिन एर्दोआं की जगह उन्हें सैनिक तानाशाही मंजूर नहीं थी. इस विरोध ने पुलिस को भी हौसला दिया और विद्रोही सैनिकों को झुकना पड़ा. यदि एक सचेत समाज और जागरूक नागरिक चुनौतियों का इस तरह से सकारात्मक प्रतिकार का साहस रखता है, तो उसके लिए मुश्किलों का समाधान आसान हो जाता है. तुर्की की जनता के इस साहस से दुनिया को सीखना चाहिए. उम्मीद है कि राष्ट्रपति एर्दोआं भी इस घटना के बाद अपने रवैये में समुचित सुधार का प्रयास करेंगे.
हालांकि, तख्तापलट की इस कोशिश के बाद वह सेना, न्यायालयों तथा सत्ता के अन्य अंगों में कार्यरत हजारों लोगों को पद से हटा चुके हैं और बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां भी हुई हैं. इस कोशिश में सही मायने में कौन शामिल था और कौन नहीं, इस बात का खुलासा होने में अभी कुछ समय लगेगा. लेकिन, राष्ट्रपति और उनकी सरकार को इस बहाने अपने विरोधियों को प्रताड़ित करने और कमजोर करने की अनुचित मंशा से परहेज करना चाहिए.