आजकल की बात तो अलग है, लेकिन हम जब बच्चे थे, तो हमें कहा जाता था कि भगवान हर जगह होता है और हरदम हमें देखता रहता है. आज यह बात सच हो न हो, मगर यह जरूर सच है कि बाजार हर जगह होता है और हर जगह से हमें देखता रहता है. टीवी हो, रेडियो हो, अखबार हो, बाजार हो, सूनी सड़क हो, पार्क हो, प्रवचन हो, मंदिर हो या फिर सोशल मीडिया हो.
अभी कल की ही बात है. मैं मेट्रो स्टेशन की ओर जा रहा था कि जिस आदमी का नौकरी करने में जितना भविष्य और जितना वर्तमान बन सकता था, लगभग बन चुका है, उसे भी एक युवा ने मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए ‘दुनिया का सबसे महान अवसर’ पेश कर दिया. जिस व्यापार से मेरा कभी कोई संबंध नहीं रहा, उस युवा ने उससे अब संबंध जोड़ने की शानदार पहल कर दी. दस हजार से पैंतीस हजार रुपये तक हर महीने कमवाने का वायदा किया! खैर राजू जैन साहब का शुक्रिया, जिनके बंदे मेरे जैसे आदमी के भविष्य के बारे में भी चिंतित रहते हैं.
मेरे इतने सुखद आर्थिक भविष्य की चिंता तो मेरी संतानों को भी आज तक नहीं हुई! बाकी शुभचिंतकों की बात बाद में कभी करूंगा, मगर मेरे ई-मेल अकाउंट को घेरे रहनेवाली उन कंपनियों की बात आज कर रहा हूं, जो मुझे महिलाओं के अंत:वस्त्रों से लेकर न जाने क्या-क्या बेचना चाहती हैं. ठीक है कि मैं एक शादीशुदा आदमी हूं, मगर पत्नी स्वयं ऐसी चीजें खरीदने में समर्थ है और इसमें न मैंने कभी सहयोग किया है, न उन्होंने मुझसे कभी मदद मांगी है!
मेरी उम्र अब लोन लेने की नहीं रही और अगर मान लो है भी, तो मुझे कोई देगा नहीं, क्योंकि मैं अब नौकरी नहीं करता, न ही व्यवसाय करता हूं. मगर, मेरे ई-मेल के दरवाजे पर लोन देनेवालों की भीड़ रोज लगी ही रहती है. कोई कहता है हम आपको 9.0 प्रतिशत पर लोन दे देंगे, तो कोई 9.4 प्रतिशत पर और कोई 9.6 प्रतिशत पर लोन देना चाहता है. कोई मुझे मैनेजमेंट एग्जीक्यूटिव का कोर्स घर बैठे करवाना चाहता है, कोई एडवांस्ड एमएस एक्सेल कोर्स करवाना चाहता है. हां कोई कृपालु 2,000 रुपये का डायबिटीज पैकेज 985 रुपये में ही देना चाहता है, जो मैं लेना नहीं चाहता, क्योंकि अभी इसकी मुझे जरूरत नहीं!
कोई दिन नहीं गुजरता कि ये लोग मुझ नकारा आदमी को भूल जायें! मेरे दोस्त, मेरे शुभचिंतक मुझे भूल जाते हैं, उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि भाई साहब-बहन जी, मैं अभी इसी संसार में हूं, परलोक नहीं गया. मगर, ई-मेल वाले शुभचिंतकों को यह याद नहीं दिलाना पड़ता. ये तो बिना नागा किये मेरी सेवा में हरदम उपस्थित रहते हैं और मेरे इस संसार में न रहने पर भी, जब तक मेरा अकाउंट जिंदा रहेगा, ये मुझे कुछ न कुछ खरीदवाते रहेंगे, लोन दिलवाते रहेंगे! शायद ‘ऊपर’ भी इनका माल बिकता हो, क्या पता!
अच्छा ये इतने साधु और इतने निरपेक्ष लोग हैं कि इन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं इनके सारे ई-मेल आते ही रोज डिलीट कर देता हूं. इनके सुझाव या प्रस्ताव पर मैंने कभी कुछ भी नहीं खरीदा है! इतने निस्पृह तो साधु-संत भी नहीं होते, जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे जरूर होते होंगे! हां मूर्तियां जरूर निरपेक्ष होती हैं, उन्हें देखो या न देखो, उनकी पूजा करो या न करो, उनकी सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. ये विज्ञापनदाता भी 21वीं सदी की मूर्तियां हैं. ये सच्चे साधु हैं. यह अलग बात है कि इन्हें सिर्फ इससे मतलब है कि आप खरीदें, बाकी आप भाड़ में या बायलर में गिर जायें! आप खरीदते रहेंगे, इसकी उम्मीद ये कभी नहीं छोड़ते! इस मायने में ये परम आशावादी हैं.
विष्णु नागर
वरिष्ठ साहित्यकार
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