उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
लंबे समय बाद किसी राज्य से विकास की हमारी सरकारी धारणा और रणनीति पर कुछ अहम सैद्धांतिक और जन-सरोकारी सवाल उठे हैं. संभव है, हमारी अर्थनीति के प्रमुख निर्धारक और आयोगों-मंत्रालयों के विशेषज्ञ या वाशिंगटन-न्यूयार्क पलट हमारे योजनाकारों और अर्थशास्त्रियों का बड़ा हिस्सा इन सवालों को घिसे-पिटे पुरानी सोच से प्रेरित बता कर खारिज करे.
लेकिन वहां उठ रहे सवालों को जनता का भी समर्थन मिलता नजर आ रहा है. सवाल उठानेवाले वैकल्पिक रणनीति भी सुझा रहे हैं. हम असम की बात कर रहे हैं, जहां हाल ही में पहली बार भाजपा की अगुवाई में सरकार बनी है. लेकिन राज्य के नये तेल-क्षेत्रों के निजीकरण के केंद्र सरकार के ताजा फैसले पर बवाल मच गया है. सिर्फ विपक्षी कांग्रेस ही नहीं, सत्तारूढ़ गंठबंधन के घटक- असम गण परिषद् ने भी मोदी सरकार के इस फैसले का विरोध किया है.
कुछ बोडो संगठनों के अलावा प्रदेश के सबसे बड़े छात्र-युवा संगठन आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने इसके खिलाफ जन-अभियान शुरू कर दिया है. भाजपा के अपने गंठबंधन सहयोगी भी पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की सुर में सुर मिलाते हुए कह रहे हैं कि असम के 12 नये तेल-क्षेत्रों के निजीकरण का केंद्र का फैसला पूरी तरह गैरवाजिब और एकतरफा है. इससे राज्य ही नहीं, संपूर्ण देश का भारी नुकसान होगा.
केंद्र ने हाल ही में असम में कुछ समय पहले पाये गये तेल-क्षेत्रों से तेल निकालने की प्रक्रिया तेज करने का फैसला करते हुए कुल 12 क्षेत्रों के निजीकरण का ऐलान किया. ये नये तेल क्षेत्र भारत सरकार की दो बड़ी तेल कंपनियों- आॅयल इंडिया लिमिटेड और ओएनजीसी के अधिकार-क्षेत्र वाले इलाके में अवस्थित हैं. शोध से पता चला कि इन तेल क्षेत्रों में तकरीबन 21 मिलियन मीट्रिक टन तेल उपलब्ध है. राज्य की नयी सोनोवाल सरकार लोगों को बताने की कोशिश कर रही है कि यह तेल क्षेत्र इतना बड़ा नहीं है, इसलिए इसके दोहन-संचालन के लिए निजी क्षेत्र की कंपनियों को लगाने का फैसला किया गया.
इससे असम की जनता या सरकार को किसी तरह की क्षति नहीं होगी. लेकिन यह दलील विपक्षी दलों, गंठबंधन सहयोगियों और आम लोगों के गले नहीं उतर रही है. उनका कहना है कि भारत सरकार की बड़ी कंपनियां ओएनजीसी या ओआइएल अगर इन तेल क्षेत्रों में नया निवेश करने से किन्हीं कारणों से बच रही थीं, तो सरकार जीएएल, आइओसीएल और एचपीसीएल जैसी तेल-गैस क्षेत्र की अन्य सार्वजनिक कंपनियों को मैदान में उतार सकती थी. सरकारी स्तर पर यह भी बताया जा रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी तेल कंपनियों को इन नये तेल क्षेत्रों में तकरीबन 4,000 करोड़ का निवेश करना, माइक्रो-स्तर पर प्रबंधन और नयी तकनीक के लिए मशक्कत करना बहुत श्रेयस्कर नहीं लगा. असम में भाजपा को छोड़ कर सभी प्रमुख दल इस दलील से सहमत नहीं. उनका कहना है कि केंद्र ने सार्वजनिक क्षेत्र में अन्य संभावनाओं को टटोले बगैर निजीकरण का एकतरफा फैसला किया. अगर केंद्रीय कंपनियां तैयार नहीं थीं, तो असम गैस कंपनी और असम हाइड्रो कार्बन लिमिटेड जैसी राज्यस्तरीय कंपनियां आसानी से इस प्रकल्प के लिए तैयार हो जातीं. इन विकल्पों को आजमाये बगैर ही केंद्र ने तेल क्षेत्रों को निजी कंपनियों के हवाले करने का फैसला कर लिया. इस आरोप को स्थानीय जनता में भी समर्थन मिल रहा है कि शीर्ष सत्ताधारी नेता अपनी पसंद के कुछ निजी घरानों को उपकृत करना चाहते हैं, इसीलिए ऐसा फैसला हुआ.
असम में यह बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है. विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा और उसके गंठबंधन का एक प्रमुख नारा था- ‘जाती, माटी, वेटी की हम रक्षा करेंगे’. जाती यानी असमिया समुदाय, माटी यानी वहां की जमीन और वेटी यानी घर और प्राकृतिक संसाधन. अब लोग सवाल उठा रहे हैं कि सोनोवाल सरकार हमारे प्राकृतिक संसाधन-तेल को निजी कंपनियों के हवाले करने के फैसले का विरोध क्यों नहीं कर रही है?
लोगों ने अब तक असम के तेल-क्षेत्र में सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को कारोबार करते देखा है. इन कंपनियों में स्थानीय लोगों को पर्याप्त मात्रा में नौकरियां भी मिली हैं. लोगों को डर है कि इस निजीकरण से प्राकृतिक संसाधनों पर निजी घरानों का कब्जा ही नहीं होगा, स्थानीय लोगों को नौकरियां भी पहले की तरह नहीं मिलेंगी. साथ ही इस फैसले से सार्वजनिक क्षेत्र की जमी-जमाई कंपनियों के विनिवेश और निजीकरण का खतरा भी बढ़ेगा. असम में शुरू से ही तेल-कारोबार एक भावनात्मक मुद्दा बनता रहा है.
यह विवाद हल नहीं हुआ, तो केंद्र और राज्य सरकार, दोनों के लिए यह सिरदर्द साबित हो सकता है. असम में उभरते इस सवाल का एक अन्य पहलू भी महत्वपूर्ण है कि इसके जरिये क्षेत्रीय दलों और आम लोगों ने केंद्र की अर्थनीति और निजीकरण संबंधी वैचारिकता को चुनौती दी है.