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टैक्स छूट नहीं, ग्रीन बोनस दीजिए

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री ग्रीन बोनस का आधार है कि मैदानी क्षेत्रों द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को पहाड़ी क्षेत्र दूर करते हैं, इसलिए उन्हें इस कार्य का पेमेंट किया जाना चाहिए. मैदानी राज्यों में उद्योगों एवं गाड़ियों द्वारा छोड़ी गयी जहरीली गैस को पहाड़ी राज्यों के जंगल सोख लेते हैं. उत्तराखंड एवं हिमाचल […]

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।

अर्थशास्त्री

ग्रीन बोनस का आधार है कि मैदानी क्षेत्रों द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को पहाड़ी क्षेत्र दूर करते हैं, इसलिए उन्हें इस कार्य का पेमेंट किया जाना चाहिए. मैदानी राज्यों में उद्योगों एवं गाड़ियों द्वारा छोड़ी गयी जहरीली गैस को पहाड़ी राज्यों के जंगल सोख लेते हैं.

उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश में लागू टैक्स छूट के स्पेशल पैकेज को चार वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है. इन पैकेजों का पर्यावरण पर भयंकर दुष्परिणाम पड़ रहा है. उद्योगों को आकर्षित करने के लिए ये राज्य अपनी नदियों के एक-एक इंच बहाव को हाइड्रोपावर के लिए बांधों में बांधना चाहते हैं, ताकि उद्योगों को बिजली मुहैया करायी जा सके.

इस प्रकार आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच अंतर्विरोध पैदा हो रहा है. पर पहाड़ी राज्यों को राहत देना भी जरूरी है, क्योंकि इन राज्यों में उद्योग नहीं लग रहे हैं और ये पिछड़े बने हुए हैं. इस समस्या का उपाय है कि टैक्स में छूट के स्थान पर इन्हें ग्रीन बोनस दिया जाये.

ग्रीन बोनस का आधार है कि मैदानी क्षेत्रों द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को पहाड़ी क्षेत्र दूर करते हैं, इसलिए उन्हें इस कार्य का पेमेंट किया जाना चाहिए. मैदानी राज्यों में उद्योगों एवं गाड़ियों द्वारा छोड़ी गयी जहरीली कार्बन डाइ आक्साइड गैस को पहाड़ी राज्यों के जंगल सोख लेते हैं.

इससे मैदानी राज्य के लोग कार्बन उत्सजर्न के दुष्प्रभावों जैसे दूषित वायु के कारण होनेवाले रोग से बच जाते हैं. वायुमंडल का तापमान कम हो जाता है और पंखा और एयरकंडीशनर को चलाने में लगनेवाली बिजली की बचत होती है. लेकिन पहाड़ी राज्यों को हानि होती है.

वे जंगल काट कर लकड़ी बेचने और खेती करने से वंचित हो जाते हैं. योजना आयोग ने एक परचे में इस बात का अनुमोदन किया है. कहा है कि जंगल संरक्षित करने के लिए पहाड़ी राज्यों की क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने भी एक दशक पूर्व निर्णय दिया था कि जिन राज्यों में जंगल कम हैं, उनके द्वारा अधिक जंगल बचानेवाले राज्यों को पेमेंट किया जाना चाहिए. लेकिन मैदानी राज्यों के द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किया गया था.

हाल में योजना आयोग ने यह भी कहा है कि उत्तराखंड एवं हिमाचल को प्लान खर्चो के लिए केंद्रीय अनुदान बढ़ा कर दिया जायेगा, चूंकि वे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर रहे हैं, जिसका लाभ पूरा देश उठा रहा है. परंतु इस प्रकार के पेमेंट से जंगलों और नदियों का संरक्षण होगा इसमें संदेह है.

कारण यह कि दी जानेवाली रकम का संबंध वर्तमान कार्यकलापों से नहीं, बल्कि पहले से उपलब्ध संसाधनों से है. मान लीजिए आज हिमाचल में 10,000 हेक्टेयर जंगल है. इस आधार पर हिमाचल को 100 करोड़ रुपये का अतिरिक्त अनुदान दिया जायेगा. तथापि हिमाचल ने 1,000 हेक्टेयर जंगल काट दिये.

इन्हें काटने से हिमाचल को 200 करोड़ का लाभ हुआ. अगले वर्ष भी हिमाचल के लिए जंगल काटना लाभप्रद बना रहा, लेकिन जंगल कम होने लगे. अत: ग्रीन बोनस देने का ऐसा उपाय ढूंढ़ना होगा कि पहाड़ी राज्यों के लिए जंगल और नदी को संरक्षित करना लाभप्रद हो जाये.

सुझाव है कि ग्रीन बोनस की रकम को धरातल की स्थिति से जोड़ देना चाहिए. मान लीजिए हिमाचल में आज 10,000 हेक्टेयर जंगल है. यदि अगले साल 10,000 हेक्टेयर जंगल पाये गये, तो राज्य को ग्रीन बोनस मिलना चाहिए. अगले साल यदि 9,800 हेक्टेयर जंगल पाये गये, तो ग्रीन बोनस में भारी कटौती कर देनी चाहिए.

इसी प्रकार वर्तमान में नदियों का जितना मुक्त बहाव है, उसे बनाये रखने पर ही ग्रीन बोनस देना चाहिए. यदि राज्य द्वारा सड़क बनाने को कुछ जंगल काटे जाते हैं, तो उतना ही जंगल नये स्थान पर लगाने पर ग्रीन बोनस देना चाहिए.

दूसरा सुझाव है कि ग्रीन बोनस की रकम प्रभावित जनता को देनी चाहिए. उत्तराखंड में पंचायतों की व्यवस्था है. ग्रीन बोनस इन पंचायतों को देना चाहिए. यह रकम भी जंगल और नदियों की स्थिति को नाप कर देनी चाहिए. तीसरा सुझाव है कि निजी भूमि धारकों को खाली पड़ी जमीन पर जंगल लगाने के लिए अनुदान देना चाहिए. पहाड़ में खेती दुष्कर है, जबकि जंगल लगाना सुलभ है.

विषय का दूसरा पक्ष अन्य स्नेतों से मिलनेवाली रकम है. यूरोपीय यूनियन द्वारा जारी एक परचे में ऐसे कई स्नेतों का विवरण दिया गया है. पहला कि निजी दानदाताओं द्वारा प्रकृति के संरक्षण के लिए दान दिया जाता है. दूसरा कि पर्यावरण से जुड़े राजस्व जैसे नेशनल पार्क की एंट्री फीस.

तीसरा वन को लाभ पहुंचानेवाली संपदा जैसे शहद की बिक्री. राज्य को इस प्रकार के राजस्व से जितनी प्रप्ति हो उसके बराबर मैचिंग अनुदान केंद्र द्वारा दिया जा सकता है.

कुल मिला कर पहाड़ी राज्यों को टैक्स छूट के स्थान पर ग्रीन बोनस दिया जाना चाहिए. टैक्स में छूट के प्रभावी होने में यूं भी संदेह है.

गोवा में ऐसी ही छूट पूर्व में दी गयी थी. पाया गया कि छूट में समाप्ति के साथ-साथ तमाम कंपनियां गोवा छोड़ कर वापस लौट गयीं. उनका उद्देश्य गोवा का औद्योगीकरण नहीं, बल्कि टैक्स में छूट का लाभ उठाना मात्र था. ऐसा ही उत्तराखंड तथा हिमाचल में होने को है. अत: अल्पकालीन औद्योगीकरण के स्थान पर दीर्घकालीन ग्रीन बोनस पकड़ना चाहिए.

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