चार हिंदीभाषी राज्यों में मिली चुनावी शिकस्त से कांग्रेस झंझावात के दौर से गुजर रही है. दरअसल कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह तय नहीं कर पा रही है कि उसे उपचार किस वैद्य से करवाना है. पार्टी में दो विचारधाराओं की तकरार भी बरकरार है. पुराने, बड़बोले, सत्तालोलुप कांग्रेसियों को मीठी-मीठी गोलियां खाने की आदत पड़ गयी है, वे किसी भी संरचनात्मक सजर्री के विरोधी हैं, जमीन की बदली हकीकत और फिजा में तैरती बदलाव की बेचैनी को वे अपने दृष्टिहीन होती आंखों से देख नहीं पा रहे हैं.
वे अब भी उसी भाव-भंगिमा और वाक्य-विन्यास के सहारे राजनीति करना चाह रहे हैं जो कांग्रेसी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है. यही कारण है कि सभी राहुल गांधी की जय-जयकार कर रहे हैं, पर राहुल गांधी के द्वारा दिये जा रहे उपचार को नापंसद कर रहे हैं. उन्हें तो बस लगता है कि राहुल गांधी के ‘हां’ कहते ही पूरा राष्ट्र राहुलमय हो जायेगा और सारे मुद्दे पीछे छूट जायेंगे, तब न तो कोई कॉमनवेल्थ घोटाले की बात करेगा और न ही कोयले के काली कमाई की, न ही 2जी स्पेक्ट्रम में हुई बंदरबांट की चर्चा होगी और न ही लोकपाल के नाम पर ठगने-मनाने के खेल की. दरअसल व्यक्ति-पूजा कांग्रेस की परंपरा रही है और चापलूसी इसकी संस्कृति.
सोनिया-राहुल के दिशा-र्निदेशन में बदलाव की दिशा में कानूनों की झड़ी लगा दी गयी. भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार, भू-अधिग्रहण कानून में संशोधन आदि बदलाव की जमीनी जनाकांक्षाओं को दृष्टिगत रख कर ही किये गये, पर इन प्रयासों में पलीता तो यही घाघ, अनुभवी, बड़बोले कांग्रेसी ही लगाते रहे हैं. कांग्रेसियों को बदलाव के साथ ताल मिला कर चलने की जरूरत है.
देवेंद्र कुमार, रांची