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आपकी पॉलिटिक्स क्या है दादा?
उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार भारत के पारंपरिक वामपंथी केरल में अपनी शानदार जीत और बंगाल में अभूतपूर्व हार के कारणों की पड़ताल के लिए राजी नहीं लगते. पिछले कुछ दिनों से माकपा के छोटे-बड़े तमाम नेता एक स्वर में कह रहे हैं कि सरकारी-साजिश और तृणमूल कांग्रेस की ‘गुंडागर्दी’ के चलते वे बंगाल में बुरी तरह […]
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
भारत के पारंपरिक वामपंथी केरल में अपनी शानदार जीत और बंगाल में अभूतपूर्व हार के कारणों की पड़ताल के लिए राजी नहीं लगते. पिछले कुछ दिनों से माकपा के छोटे-बड़े तमाम नेता एक स्वर में कह रहे हैं कि सरकारी-साजिश और तृणमूल कांग्रेस की ‘गुंडागर्दी’ के चलते वे बंगाल में बुरी तरह हारे!
मतदान के बाद सीएसडीएस द्वारा कराये सर्वेक्षण के मुताबिक, बंगाल के दलित-पिछड़ों व अल्पसंख्यकों में वाम मोर्चे को अपेक्षाकृत कम समर्थन मिला, जबकि सवर्ण भद्रलोक को ज्यादा. तो क्या माना जाये, बंगाल की माकपा अब गरीबों के बजाय भद्रलोक का प्रतिनिधित्व करनेवाली पार्टी बन रही है या कि इसकी सांगठनिक संरचना समावेशी और प्रतिनिधित्वकारी नहीं है?
केरल की कहानी इससे बिल्कुल अलग है. वहां माकपा मोर्चे को दलित-पिछड़ों का भरपूर समर्थन मिला. अल्पसंख्यकों में भी उसने कुछ हिस्सा हासिल किया. केरल में मुसलिम और इसाई अल्पसंख्यक समुदाय पारंपिरक रूप से कांग्रेस-नीत यूडीएफ के समर्थक हैं.
फिर सवाल उठना लाजिमी है, बंगाल में माकपा ने ऐसा क्या किया कि उत्पीड़ित समुदायों ने उसे नजरंदाज कर तृणमूल के पक्ष में मतदान किया? सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, बंगाल में मुसलिम आबादी का बड़ा हिस्सा उत्पीड़ित और गरीब है. आखिर अपने 34 वर्षीय शासन में माकपा ने इनके लिए क्या किया? शायद इसीलिए अल्पसंख्यकों का समर्थन ममता को मिला. बंगाल में मुसलिम अल्पसंख्यक 27 फीसदी हैं. जनसंख्या में यहां इनकी हिस्सेदारी जम्मू-कश्मीर और असम के बाद सबसे अधिक है.
सर्वेक्षण के मुताबिक, इस बार तृणमूल कांग्रेस को मुसलिम समर्थन 51 फीसदी मिला, जबकि माकपा और उसके वाम-सहयोगियों को सिर्फ 24 फीसदी समर्थन मिला. साल 2006 और 2011 में बंगाल के मुसलिम अल्पसंख्यक समुदायों का वाम मोर्चे को क्रमशः 45 और 42 फीसदी समर्थन मिला था. गिरावट उल्लेखनीय है. दलित-पिछड़ों का वोटिंग पैटर्न भी काफी कुछ ऐसा ही रहा. साफ है कि ममता के बीते पांच वर्षों के शासन में मुसलिम और दलित-पिछड़ों ने अपेक्षाकृत बेहतर महसूस किया.
केरल में ऐसा नहीं हुआ. वहां दलित-पिछड़ों के बड़े हिस्से ने माकपा मोर्चे के पक्ष में मतदान किया. सर्वेक्षण के मुताबिक, दलितों में 51 फीसदी, आदिवासियों में 71 फीसदी और इड़वा जैसी पिछड़ी जाति में 49 फीसदी वोट माकपा मोर्चे को मिले. कांग्रेस-नीत यूडीएफ को दलितों और आदिवासियों के बीच क्रमशः 22 और 24 फीसदी वोट मिले. इड़वा समुदाय के बीच उसे महज 28 फीसदी लोगों का समर्थन मिला. दोनों प्रदेशों के वोटिंग पैटर्न, खासकर दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के मतदान-रुझान से माकपा की राजनीति, नेतृत्व और सांगठनिक स्थिति का पता चलता है.
ज्योति बसु सरकार के पहले चरण में शुरू हुए ‘आॅपरेशन बर्गा’(भूमि सुधार कार्यक्रम) का असर यह हुआ कि खेतिहर गरीबों की नयी पीढ़ियों के बीच बंटवारे के बाद जमीन का रकबा बहुत कम हो गया. राज्य में नये सिरे से औद्योगिक विस्तार और विकास के बगैर रोजगार की व्यवस्था संभव नहीं थी. बसु के उत्तराधिकारी बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इसीलिए पूंजी निवेश और औद्योगिक विकास को लेकर सोचना शुरू किया. लेकिन भट्टाचार्य ने क्रियान्वयन की प्रक्रिया में बड़ी गलती कर दी.
नये कारखानों और प्रकल्पों के लिए भूमि अधिग्रहण का उनका फाॅर्मूला सही नहीं था. नंदीग्राम और सिंगुर में उनकी सरकार बुरी तरह फंस गयी. इन्हीं परिस्थितियों में ममता बनर्जी की शख्सियत और सियासत को उभरने का मौका मिला.
बंगाल में माकपा का नेतृत्व पहले से ही समावेशी या प्रतिनिधित्वकारी नहीं था. बंगाल के काॅमरेडों ने अरसे तक मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू ही नहीं किया. बंगाल माकपा में ब्राह्मण-कायस्थ नेताओं का वर्चस्व रहा है.
लंबे समय तक वाम-शासन के बावजूद राज्य प्रशासन पर संपूर्ण सवर्ण वर्चस्व दिखता है. हाल के वर्षों में कई दलित नेता माकपा में आये हैं, लेकिन इनमें कोई शीर्ष नेतृत्व का हिस्सा नहीं. दूसरी तरफ, केरल में माकपा नेतृत्व और संगठन के स्तर पर ज्यादा समावेशी और प्रतिनिधित्वकारी है. वीएस अच्युतानंदन जैसे पिछड़े वर्ग से आये नेता लंबे समय तक पार्टी के सचिव रहे. कई प्रमुख केंद्रीय नेताओं के न चाहते हुए भी वह केंद्रीय समिति और फिर पोलित ब्यूरो तक पहुंचे.
साल 2006 में वे मुख्यमंत्री बने. इस बार उनकी जगह पिनराई विजयन को मुख्यमंत्री बनाया गया, जो स्वयं भी पिछड़े इड़वा समुदाय से आते हैं. राज्य और जिला समितियों के अंदर भी केरल में दलित-पिछड़े और अन्य उत्पीड़ित समुदायों का प्रतिनिधित्व बंगाल के मुकाबले बेहतर है. राज्य प्रशासन भी ज्यादा समावेशी है. लेकिन माकपा नेतृत्व बंगाल में ‘वर्ग संघर्ष’ चलाने के नाम पर वर्ण-पिछड़ापन और सामाजिक-हाशियाकरण पर गौर करने को हरगिज तैयार नहीं!
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