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बखारी की कहानी

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान बिहार को देश के अन्य हिस्सों से जोड़नेवाली फोर लेन सड़क से गुजरते वक्त खेतों के बीच निर्माणाधीन विशालकाय गोदामों को देख कर मुझे गांव-घर के देसी गोदाम यानी ‘बखारी’ और ‘कोठी’ की याद आने लगती है. मुझे याद है जब बचपन में धान की तैयारी होती थी, तो […]

गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
बिहार को देश के अन्य हिस्सों से जोड़नेवाली फोर लेन सड़क से गुजरते वक्त खेतों के बीच निर्माणाधीन विशालकाय गोदामों को देख कर मुझे गांव-घर के देसी गोदाम यानी ‘बखारी’ और ‘कोठी’ की याद आने लगती है. मुझे याद है जब बचपन में धान की तैयारी होती थी, तो घर के सामने महिलाएं एक गीत गाती थीं. ‘सब दुख आब भागत, कटि गेल धान हो बाबा, आब भरबे बखारी में धान हो, छूटी जेते बंधक में राखल गहना हो रामा…’
बखारी, वैसे तो अब नहीं के बराबर दिखता है, लेकिन गोदाम संस्कृति से पहले बखारी ही किसानों का अन्न बैंक होता था. किसान अपने गांव-घर में ही दुनिया की सारी खूबियों को समा कर रखते आये हैं.
किसानों के अन्न रखने की उनकी अपनी शैली है, जिसे बखारी कहते हैं. किसान सालभर के लिए बखारी में अन्न जमा कर रखते हैं. जब गोदाम संस्कृति का आगमन गांव में नहीं हुआ था, तब बड़े-बड़े किसान तो अपने घरों के सामने कई बखारी बना कर रखते थे, जहां गांव के छोटे और सीमांत किसान अपना अन्न रखते थे. गांव के आपसी समन्वय और सामुदायिकता को आप इस बात से समझ सकते हैं. अब तो हम नकदी फसलों को सीधे शहर की मंडी में भेज देते हैं.
बखारी या अन्नागार में अन्न को भंडारित किया जाता है. पहले मिट्टी के बर्तनों में भी अन्न भंडारित किया जाता था. कुछ किसान कच्ची मिट्टी और भूसे से अन्नागार बनाते थे, जिसको ‘डेहरी’ कहा जाता था. इसे ‘अन्न की कोठी’ भी कहते हैं. हमारे यहां कोठी आज भी दिख जाता है. हाल ही में अररिया के एक सुदूर गांव जाना हुआ, जहां मैंने बड़ी संख्या में ‘कोठी’ बनते हुए देखा.
बचपन में हम घंटों बैठ कर बखारी बनते देखते थे. घर के आगे बखारी बनता था, तो आंगन के भंडार में कोठी. मुझे याद है, कारीगर बखारी को मिट्टी से लेप कर खूबसूरत बना देते थे. कई बखारी में लोक कलाओं को शामिल किया जाता था. बखारी किसानों की लोक कला संस्कृति का बेजोड़ नमूना है. माटी से अन्न का जुड़ाव भंडारण की देसी पद्धति का नायाब उदाहरण है.
उत्तर बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में एक समय में आपको हर घर के सामने बखारी देखने को मिल जाता, लेकिन समय के साथ-साथ बखारी की संख्या घटती चली गयी. इसके कई कारण हैं. बखारी बांस और फूस से बनाया जाता है. यह गोलाकार और उसके ऊपर फूस (घास) का छप्पर लगा रहता है. इसके चारों तरफ मिट्टी का लेप लगाया जाता है (जैसे झोपड़ी बनायी जाती है). बखारी का आधार धरती से लगभग पांच फुट ऊपर रहता है, ताकि इसमें चूहे न घुस पायें.
पहले हर किसान के घर के सामने बखारी बना होता था. जिसके घर के सामने जितना बखारी, मानो वही गांव का सबसे बड़ा किसान हो. कई घर के सामने तो दस से अधिक बखारी भी होते थे. इन बखारियों से अन्न निकाला भी अलग तरीके से जाता है. बखारी के छप्पर को बांस के सहारे उठाया जाता है, फिर सीढ़ी के सहारे लोग उसमें प्रवेश करते हैं, फिर अन्न निकालते हैं. किसान को अंदाजा होता है कि एक बखारी में कितना अनाज है. बखारी की दुनिया ऐसी कहानियों से भरी पड़ी है.
कुछ किसान तो अपने आंगन में छोटी बखारी भी बना कर रखते थे. इन बखारियों को, खासकर महिलाओं के लिए बनाया जाता था. इसकी ऊंचाई कम हुआ करती थी, ताकि आसानी से महिलाएं अनाज निकाल सकें.
धान और गेहूं के लिए जहां इस तरह की बखारी बनायी जाती थी, वहीं चावल के लिए कोठी बनायी जाती थी. कोठी पूरी तरह से माटी की होती थी. इसे महिलाएं और पुरुष कारीगर खूब मेहनत से बनाते थे. अब धीरे-धीरे गांव-घर से ये सारी चीजें गायब होती जा रही हैं. ग्राम्य संस्कृति इन चीजों के बिना हमें अधूरी लगती है.

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