विगत चार जनवरी, 2014 को छपे ‘झारखंडी अस्मिता के नाम पर’ पढ़ा. इस पर मैं टिप्पणी करना चाहता हूं. झारखंडी अस्मिता का तात्पर्य है यहां सदियों से रहनेवाले आदिवासी-सदान समुदाय की विशिष्ट भाषा-संस्कृति, मूल्य एवं परंपराएं. इसी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक भिन्नता के कारण ही अलग झारखंड राज्य बना.
हमारे देश में अन्य राज्यों का गठन भी इसी अस्मिता के कारण हुआ और हो रहा है. संवैधानिक रूप से भारत एक जरूर है, क्योंकि यहां के लोगों की एक नागरिकता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत एक संघीय गणराज्य है और यहां राज्य सरकारों को अपने प्रादेशिक हित पर ध्यान देने का पूरा अधिकार है.
जब किसी प्रदेश या क्षेत्र के स्थानीय संसाधनों पर बाहर के लोगों का वर्चस्व हो जाता है, तो असंतोष पनपता ही है. यह सिर्फ झारखंड की बात नहीं, बल्कि पूरे देश तथा विश्व की है. झारखंड में हर प्रांत के लोगों का स्वागत है, लेकिन अगर वे यहां अपना हक जमाने की कोशिश करेंगे, तो दिक्कत तो होगी ही. जब राज्य के तृतीय एवं चतुर्थ वर्गीय पदों पर भी स्थानीय लोगों को नौकरी के लाले पड़े हों, तो इस पर उभरे असंतोष से आश्चर्य कैसा?
जहां तक बिहार के आगे निकलने की बात है तो तथाकथित सुशासन के बावजूद बिहार अब भी गरीबी और अशिक्षा के मामले में देश में अव्वल है तथा झारखंड के पिछड़ेपन के तार भी बिहार से ही जुड़े हुए हैं. बिहार ने इसे चरागाह के रूप में इस्तेमाल किया. झारखंड का यह दुर्भाग्य भी रहा कि विभाजन के बाद यहां किसी एक पार्टी की स्थायी सरकार नहीं बन पायी और इसका भी कारण है बाहरी लोगों का यहां की राजनीति में वर्चस्व और छल-प्रपंच. स्थानीय विभीषणों को छोड़ दें, तो अच्छे नेताओं की यहां भी कमी नहीं है.
विनोद कुमार मिंज, गुमला