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विश्व-व्यापार और भारत

संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् सन् 1980 के पश्चात पूरे विश्व में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की ऐसी आंधी चली कि विश्व-व्यापार के सभी मानकों व मापदडों में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया. अब किसी भी देश को यदि समृद्ध बनना था, तो यह न केवल महत्वपूर्ण था वरन अत्यावश्यक भी कि आप अपनी अर्थव्यवस्था […]

संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
सन् 1980 के पश्चात पूरे विश्व में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की ऐसी आंधी चली कि विश्व-व्यापार के सभी मानकों व मापदडों में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया. अब किसी भी देश को यदि समृद्ध बनना था, तो यह न केवल महत्वपूर्ण था वरन अत्यावश्यक भी कि आप अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व के साथ जोड़ें. इस हेतु भारत ने अनेक स्थानीय व्यवस्थाओं व विनियमनों में भारी परिवर्तन किये. यह अलग बात है कि हमने भीषण मजबूरियों के चलते 1991 के बाद आर्थिक सुधार प्रारंभ किये.
प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने इतने व्यापक स्तर पर नियमों का शिथिलीकरण किया कि राष्ट्रीय औद्योगिक परिदृश्य पूर्णतः बदल गया. चीन ने आक्रमक नेता डेंग झाओपिंग के नेतृत्व में 1979 में ही पूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता को समझ लिया था और दक्षिण-पूर्वी तटीय क्षेत्रों में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसइजेड) बनाना शुरू कर आनेवाले सफल दशकों की नींव रख दी थी. आज वही चीन व्यापार घाटे में हमारा सबसे बड़ा सिरदर्द है.
तो हम 1991 में जागे. अब 1950 से व्याप्त लाइसेंस-कोटा-परमिट राज समाप्ति की ओर था और गुणवत्ता-आधारित, अनुसंधान-निर्देशित एवं उद्यमिता-चलित उत्पाद व सेवाएं ही बाजार में टिकनेवाले थे. अच्छी बात यह रही कि 1995 में बने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से भारत पहले दिन से जुड़ा रहा. उम्मीद यह भी थी कि दक्षेस संगठन भी हमारा व्यापार बढ़ायेगा एवं हमारे वैश्विक निर्यात कुलांचे भरने लगेंगे. आनेवाली हर सरकार ने आर्थिक सुधारों का एजेंडा निरंतर आगे बढ़ाया. लेकिन आज, इन सारे प्रयागों के बाद, विश्व-व्यापार में भारत की स्थिति बेहद नाजुक बनी हुई है. इसके पांच कारण हैं और उन्हीं से जुड़े समाधान भी हैं.
सबसे पहला, भारत कुल वार्षिक विश्व-व्यापार में 3 प्रतिशत से भी कम का हिस्सेदार है. इसके अनेकों ऐतिहासिक कारण रहे हैं, लेकिन विश्व की 18 प्रतिशत जनसंख्या वाला देश विश्व-व्यापार में इतनी छोटी हिस्सेदारी से बेहद नुकसान में रहेगा. हमें यह प्रतिशत हर हाल में बढ़ाना ही होगा. इस हेतु अनेक नीतिगत परिवर्तन आज भी किये जा रहे हैं. इसी से देश में नियोजन व नौकरियां भी बढ़ेंगी.
दूसरा, हमारे निर्यातों की बुरी स्थिति. ध्यान से देखें तो सेवा क्षेत्र निर्यातों- जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी निर्यात सर्वाधिक है- काे छोड़ कर वस्तु निर्यात में हम अच्छा नहीं कर पा रहे हैं. इसके दो कारण हैं- कम गुणवत्ता वस्तुओं का विशाल स्थानीय बाजार में आसानी से खप जाना एवं हमारा अपेक्षाकृत छोटा उत्पादन आधार. इन दोनों को ही ठीक करना होगा. शायद इसलिए सरकार ‘मेक-इन-इंडिया’ कार्यक्रम पर इतना बल दे रही है.
तीसरा, प्रमुख कारण रहा है हमारा अंतर्मुखी होना. यह दरअसल आश्चर्यजनक है, क्योंकि 5000 वर्ष पूर्व हमारे सिंधु घाटी सभ्यता के पूर्वज बिना इंजन की नावों से हजारों मील दूर व्यापार कर आते थे. रेशम पथ पर भी चीन के बाद भारत का ही नंबर लगता था. लेकिन उसके बाद विश्व के कुल जीडीपी में लगभग आधी हिस्सेदारी होने के बावजूद हम रास्ता भटक गये. आज सही अर्थों में उस पुराने व्यापारिक गौरव को लौटाना जरूरी है. हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी. जितना प्रसिद्ध आयुर्वेद व योग है, उतने ही प्रसिद्ध हमारे निर्यात होने चाहिए.
चौथा, हमारी घरेलू समस्याओं जैसे विशाल आबादी और चौतरफा गरीबी के चलते हमने अनेक क्षेत्रों में उन सहूलियतों का कानूनी इस्तेमाल किया है, जिनसे डब्ल्यूटीओ जैसे मंचों पर मौजूद हमारे पश्चिमी भागीदार बहुत भड़कते हैं. मसलन, फार्मा क्षेत्र में कंपल्सरी लाइसेंसिंग (अनिवार्य अनुज्ञप्तिकरण) या सार्वजनिक क्षेत्र में पब्लिक स्टाॅक-होल्डिंग प्रोग्राम (सार्वजनिक खाद्य भंडारण कार्यक्रम) को लें. इससे हमारे व्यापारिक रिश्ते कड़वे होते चले गये हैं. साथ-ही-साथ दक्षिण एशियाई देशों के बीच के व्यापार का आकार इतना छोटा रहा है कि उससे कोई लाभ नहीं होनेवाला. जब तक पाकिस्तान खुले दिल से व्यापार के लिए दरवाजे नहीं खोल देगा, दक्षिण एशिया से हमें ज्यादा कुछ नहीं हासिल होनेवाला.
पांचवा पहलू जो उभरती चुनौतियां दर्शाता है, वह है अमेरिका द्वारा नये क्षेत्रीय व्यापारिक अनुबंध करने की जल्दी, जैसे कि टीपीपी (ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप) या फिर टीटीआइपी (ट्रांस एटलांटिक ट्रेड एंड इनवेस्टमेंट पार्टनरशिप). ये वह भीमकाय नये गुट होंगे, जिनमें भारत शामिल नहीं होगा और जिनके नियम, विशेषकर बौद्धिक संपदा अधिकारों को लेकर, इतने कठोर होंगे कि हमारी मौजूदा व्यवस्था पूर्णतः असंगत दिखाई देगी. हमें स्थानीय बौद्धिक संपदा ढांचे को तुरंत सुधारना जरूरी है, जिसमें प्रशासनिक और न्यायिक ढांचे को गतिशील बन कर त्वरित न्याय देना भी शामिल होगा, ताकि मूल अनुसंधान कर नये प्रोडक्ट बनानेवाले उद्यमी निराश न हों.
लगातार बढ़ती युवा आबादी और नौकरियों के सृजन की जरूरत हमें यह बारंबार याद दिलाती है कि विश्व व्यापार बढ़ाने के अवसरों को हमें भुनाना चाहिए. ऐसे माहौल में आशा की नयी किरणें जो अब दिखने लगी हैं, वे हैं भारत सरकार की अति-महत्वाकांक्षी अधोसंरचना परियोजनाएं जैसे कि सागरमाला, भारतमाला, उच्चगति रेल, औद्यौगिक गलियारे आदि, जिनमें मूर्त रूप लेने के पश्चात भारत को पूर्णतः बदल देने की क्षमता है. भारत के संपूर्ण शिक्षा ढांचे को हमें इस प्रकार पुनर्गठित करना होगा कि विश्व व्यापार की आवश्यकताओं का पहला प्रतिबिंब हमारे छात्रों की अध्ययन शैली और परीक्षा प्रणाली में दिखाई देने लगे. तभी हमें बढ़ी मात्रा में वह कुशल श्रमबल मिलता चला जायेगा, जो इन सरकारी नीतियों को मूर्त रूप दे पायेगा.
प्रत्येक कार्य में गुणवत्ता, एक बहिर्मुखी रुझान और विश्व में अपना गौरवशाली झंडा फहराने की अदम्य इच्छा ही हमारी वास्तविक क्षमता को व्यापारिक आंकड़ों में तब्दील कर पायेगी. ऐसा होना सभी के लिए अत्यंत लाभकारी होगा. वसुधैव कुटुंबकम् में प्रेम, करुणा और विश्वास के साथ यदि व्यापार भी जुड़े तो कोई हर्ज नहीं. आखिर हमें प्रति व्यक्ति औसत आय 3 से 4 गुना बढ़ा कर ही देश को मध्यम समृद्धि स्तर पर ले जाने में सफलता मिल पायेगी.

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