चुनावों को संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की आधारशिला कहा जाता है. विभिन्न दलों की हिस्सेदारी से चुनावों को वैधानिकता मिलती है, तो अवाम की सक्रिय भागीदारी से इसे जीवंतता हासिल होती है.
इन कसौटियों पर देखें तो भारत के पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में हुए आम चुनाव को लोकतंत्र की मूल भावना के अनुकूल शायद ही कहा जायेगा. बांग्लादेश में रविवार को हुए आम चुनाव में सत्तारूढ़ अवामी लीग विजेता बन कर उभरी है. इस खबर का दूसरा पहलू यह है कि चुनाव वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) की अगुवाई में 18 दलों के बहिष्कार के बीच संपन्न हुआ.
300 निर्वाचन क्षेत्रों में से 157 पर विपक्षी दलों के बहिष्कार के कारण उम्मीदवारों का चयन निर्विरोध हो गया. शेष 143 सीटों पर हुए मतदान में हिंसा के भय के कारण लोगों की भागीदारी काफी कम रही. वास्तव में बांग्लादेश चुनावों के नतीजे पहले से ही तय थे. अवामी लीग द्वारा आंतरिक सरकार के नेतृत्व में चुनाव कराने की विपक्ष की मांग ठुकराने के बाद से बांग्लादेश हिंसा की आग में उबल रहा था.
हिंसा का यह सिलसिला चुनाव के दिन तक जारी रहा. चुनाव में हुई व्यापक हिंसा में 21 लोगों के मारे जाने की खबर है. पिछले कुछ महीने से जारी हिंसक गतिरोध चुनाव परिणामों के बाद अब और गहराने की आशंका है. इसका पहला संकेत तब मिला, जब नतीजों के औचित्य पर सवाल उठाते हुए बीएनपी नेता खालिदा जिया ने विपक्षी दलों के दो दिवसीय राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान कर दिया.
हालांकि, भारत अवामी लीग की नेता शेख हसीना को अपना मित्र मानता है और उनके कार्यकाल के दौरान दोनों देशों के आपसी संबंध विभिन्न मोरचों पर सुदृढ़ भी हुए हैं, लेकिन निकटतम पड़ोसी देश में अशांति के माहौल को कहीं से भी भारत के हित में नहीं कहा जा सकता है.
यह एक तथ्य है कि किसी राष्ट्र की अशांति वहां कट्टरपंथी तत्वों के विकास के लिए खाद-पानी का काम करती है. बांग्लादेश में लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि वहां की दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां वार्ता की मेज पर आकर भविष्य की राह तलाशने की कोशिश करें. यह बांग्लादेश, वहां की जनता के साथ ही भारत के दीर्घकालीन हितों के लिए भी जरूरी है.