डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
भारत में मुकदमेबाजी एक ऐसा शगल है, जिसमें आदमी को अपनी जिंदगी पूरी तरह से तबाह करने का पूरा मौका मिलता है. मुकदमेबाजी भी एक किस्म की बाजी है, यह मुकदमेबाजी में पड़ने के बाद ही पता चलता है. जो भी कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़ता है, उसका ‘कोरट’ होना तय माना जाता है. पता नहीं, कोर्ट यानी अदालत को पता है या नहीं, कि ‘कोरट होना’ एक मुहावरा ही बन गया है, खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, जिसका मतलब है सत्यानाश होना.
अदालतों में बरसों-बरस चलनेवाले मुकदमे पुनर्जन्म के सिद्धांत की जिस शिद्दत से पुष्टि करते हैं, उतना शायद ही कोई और चीज करती हो. अगले जन्म में विश्वास न करनेवाले धर्मों के अनुयायी भी अदालत में आकर उसमें विश्वास करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं. मुकदमा दायर करनेवाला अंतत: यह सोचने पर बाध्य हो जाता है कि इस जन्म में न सही, अगले जन्म में तो फैसला हो ही जायेगा.
उधर आरोपी यह सोचता है कि इस जन्म में तो फैसला होने से रहा, अगले जन्म की अगले जन्म में देखी जायेगी. नेताओं, बिल्डरों आदि के व्यवसाय तो अदालत पर उनके इस अटूट भरोसे की बुनियाद पर ही खड़े होते हैं.
वकील और अदालत के कर्मचारी मुवक्किल को लोककथाओं का कभी खाली न होनेवाला बरतन या फिर मुंहमांगी मुरादें पूरी करनेवाला शंख समझते हैं और मुवक्किल को भी पूरा मौका देते हैं कि वह भी उन्हें शंख ही समझे, फिर चाहे वह उन्हें ढपोरशंख ही क्यों न समझे.
हमारे जानकार एक जज साहब बताया करते थे कि उनके एक पेशकार की तो आदत ही पैसा लेने के लिए अपना एक हाथ फैला कर बैठने की हो गयी थी. उनका एक हाथ सामने फैला रहता और दूसरा काम करता रहता, बेशक पहले हाथ में कुछ पड़ने के बाद ही. उन्होंने बताया कि नाराज होकर एक बार उन्होंने उसके उस फैले हुए हाथ पर थूक दिया, जिससे पलभर के लिए तो उसने अपना वह हाथ पीछे खींच लिया, लेकिन पोंछ कर फिर फैला दिया. कुत्ते की पूंछ जिस तरह हमेशा मुड़ी ही रहती है, कभी सीधी नहीं होती, उसका वह हाथ हमेशा सीधा ही रहा, पीछे नहीं मुड़ा.
मुकदमेबाजी को पतंगबाजी के स्तर पर पहुंचा देनेवाले कुछ जागरूक नागरिक अदालतों में पहले से लंबित मुकदमों की संख्या में वृद्धि करने में अपना भरसक योगदान करने से पीछे नहीं हटते. कभी-कभी तो वे इन मुकदमों में आदमियों को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी लपेट लेते हैं, यहां तक कि भगवानों को भी नहीं छोड़ते.
हाल ही में बिहार के सीतामढ़ी में एक वकील ने तो सीजेएम कोर्ट में भगवान राम के खिलाफ ही मुकदमा ठोंक दिया, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि त्रेता युग में भगवान राम ने एक धोबी की बातों में आकर अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया था, जिसके कारण उन पर महिला-उत्पीड़न का मामला बनता है.
काबिल जज ने याचिका सुनवाई के लिए मंजूर भी कर ली, लेकिन फिर सरकारी वकील द्वारा धर्म की गूढ़ बातें आसानी से समझ न आने का हवाला देने से उसे खारिज भी कर दिया. अब डर यह है कि कहीं कोई भला मानुस या फिर वकील भगवान राम के खिलाफ शंबूक की हत्या को लेकर दलित-उत्पीड़न का मुकदमा दायर न कर दे.