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नयी हिंदी और पुराना नजरिया

प्रभात रंजन कथाकार हाल में ही इंदौर में एक आयोजन में जाने का मौका मिला. वहां बहस हिंदी भाषा को लेकर हो रही थी. हिंदी के ज्यादा बड़े-बुजर्गों की चिंता यह थी कि नयी पीढ़ी हिंदी से दूर हो गयी है, हिंदी अब कोई नहीं पढ़ना चाहता, कुछ दिनों में गंभीर हलकों में, हिंदी का […]

प्रभात रंजन

कथाकार

हाल में ही इंदौर में एक आयोजन में जाने का मौका मिला. वहां बहस हिंदी भाषा को लेकर हो रही थी. हिंदी के ज्यादा बड़े-बुजर्गों की चिंता यह थी कि नयी पीढ़ी हिंदी से दूर हो गयी है, हिंदी अब कोई नहीं पढ़ना चाहता, कुछ दिनों में गंभीर हलकों में, हिंदी का अस्तित्व मिट जायेगा. मुझे याद आया कि प्रसिद्ध लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने साल 2000 के आसपास एक लेख में यह चिंता जाहिर की थी कि अगर हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाएं अपने अस्तित्व को लेकर सजग नहीं हुईं, तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय भाषाएं ‘किचन लैंग्वेज’ बन कर रह जायेंगी.

इस बात से मुझे याद आया साल 2000 के आसपास तत्कालीन विदेश मंत्री ने हिंदी के एक अमेरिकी पोर्टल के उद्घाटन के मौके पर भाषण देते हुए कहा था कि हिंदी की ‘सेक्स अपील’ बढ़ाने की जरूरत है. लगभग वही समय था, जब एक हिंदी राष्ट्रीय दैनिक में प्रीतिश नंदी का एक लेख छपा था, जिसमें उन्होंने हिंदी का लगभग मजाक उड़ाते हुए यह लिखा था कि हिंदी रिक्शेवालों और ठेलेवालों की भाषा है. यही वह दौर था, जब हिंदी को बचाने के लिए रोमन लिपि में लिखे जाने को लेकर बहस शुरू हो गयी थी.

याद आता है कि जब कंप्यूटरीकरण, तकनीकीकरण का दौर शुरू हुआ, तो हिंदी का एक वर्ग उसके खिलाफ लट्ठ लेकर खड़ा हो गया. दूसरा वर्ग वह था, जो इस बात के ऊपर चिंता व्यक्त करने लगा कि हाय अब हिंदी का क्या होगा. तीसरा वर्ग वह था, जिसने चुपचाप तकनीकी को अपनाया और उसे हिंदी के अनुकूल बनाना शुरू किया. पिछले 15 सालों में हिंदी की तस्वीर बदल चुकी है.

खासकर पिछले चार-पांच सालों में यह बदलाव अधिक तेजी से हुआ है. आज हिंदी देश में सोशल मीडिया से लेकर मोबाइल फोन पर सर्वाधिक उपयोग में आनेवाली भाषा है. जिनको 2000 के आसपास यह लगता था कि हिंदी शर्म की भाषा है, गरीब-गुरबों की भाषा है, उनको शायद इस बात का इल्म भी न हो कि आज हिंदी शर्म की नहीं, बल्कि गर्व की भाषा बन चुकी है.

वर्तमान में तकनीक ने न केवल हिंदी भाषा के उपयोगकर्ताओं में वृद्धि की है, बल्कि इस भाषा में पढ़नेवाले लोगों के लिए सम्मानजनक रोजगार के रास्ते भी खुले हैं. यह बात और है कि पुरानी पीढ़ी इस बात को समझ नहीं पाती है. पुराना माइंडसेट बदलने में समय लगता है.

हिंदी में लिखनेवालों की पूछ बढ़ी है. मुझे याद है कि 2000 के आसपास मैं अपने एक रिशेदार के यहां कुरता और जींस पहन कर चला गया था, तो उन्होंने देखते ही कहा था कि हिंदी के पत्रकार लग रहे हो. आज हिंदी का पत्रकार होना ग्लैमर का हिस्सा माना जाता है. कल तक हिंदी का लेखक स्वांत: सुखाय लेखन करता था. आज हिंदी के प्रासंगिक किताबों को लेकर प्रमुख अंगरेजी अखबारों में नियमित लेख छपा करते हैं.

कहने का मतलब है कि हालात बहुत बदल चुके हैं, लेकिन समाज का एक बड़ा तबका आज भी है, जो पुराने नजरिये के साथ जी रहा है. उसको बदले बिना नयी हिंदी की धमक नहीं सुनाई देगी.

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