मुद्दत बाद जाना हुआ उस कोठी की तरफ. जगह-जगह प्लास्टर उखड़ चुका है. लखोरी ईंटें दिख रहीं हैं. सूखी बेलों और घने मकड़ी के जाल से ढकी है यह कोठी. लेकिन कटहल का पेड़ ज्यों का त्यों है. अब भुतही कोठी कहलाती है यह. बंदा डाउन मेमोरी लेन में चला जाता है…
चालीस साल पहले. कटहलों से लदा पेड़ और नीचे बंदा. बंदे के मित्र ने उसे खींच न लिया होता, तो धम्म से एक मोटा कटहल खोपड़ी फोड़ गया होता. चाय-शाय के बाद जब बंदा वापस होने को हुआ था, तो साइकिल के कैरियर पर उसी मोटे कटहल को बंधा हुआ पाया. पहली दफे आने का प्रतीक चिह्न. उसके बाद भी कई बार कटहल के साथ वापसी हुई. लेकिन त्रासदी देखिये. सात पुश्त पहले कटहल चोरी में बंदे का कोई पूर्वज धरा गया था. मालिन ने श्राप दिया था कि कटहल खाया नहीं कि सिर के टुकड़े-टुकड़े हुए. किसी को बताते भी शर्म आती थी. ऐसे में कटहल पड़ोसियों में टुकड़े-टुकड़े होकर बंटता.
मित्र किसी के घर विजिट करते थे, तो मिठाई की जगह कटहल ले जाते थे. हम जब कटहल के साथ लौटते, तो पूछने की जरूरत न पड़ती थी कि कहां से आये हो? बंदे के विवाह की दसवीं वर्षगांठ पर उपहार स्वरूप बोरे में दस कटहल बांध लाये और अगले दिन पड़ोसियों में बांट दिये.
शाम को पड़ोस की मिसेस त्रिवेदी आयीं. बड़े कटोरे में सब्जी लेकर. बंदे ने डरते-डरते एक चम्मच मुंह में डाला. बहुत अच्छी लगी. बंदे ने पूछा- काहे की है यह सब्जी? मिसेस त्रिवेदी खिलखिला कर हंस दीं- कटहल की. आप ही के घर से तो गया था कटहल.
बंदे को तो काटो खून नहीं. सबसे पहले खोपड़ी टटोली. बिलकुल महफूज थी. बंदे ने हजार बार खुद को कोसा- यार हमें क्या मालूम था कि इतना स्वादिष्ट होता है कटहल? सालों से मित्र द्वारा प्यार से दिये कटहल पड़ोसियों में बांटते-फिरते हो. लानत है तुझ पर. यह तो अच्छा हुआ कि पिछवाड़े वाले भारती जी के घर ताला पड़ा था. इस कारण दो कटहल बच गये. मेमसाब तो फौरन मिसेस त्रिवेदी के घर रवाना हो गयीं, कटहल बनाने की रेसिपी लेने.
बहरहाल, उस दिन के बाद से बंदे का परिवार जबरदस्त कटहल प्रेमी हो गया. सुबह-दोपहर-शाम कटहल ही कटहल. नाना प्रकार के व्यंजन. पिछले कई बरस से कटहल मिस करने का गम भी मिटाना था. मेमसाब अक्सर कहने लगीं- शाम मित्र के घर से होते हुए लौटना. शायद एक-आध कटहल मिल जाये.
…बंदा मेमोरी लेन से लौटता है. मित्र बता रहे थे कि सौ साल का बूढ़ा हो चुका है कटहल का पेड़. अब तो इस पर कभी-कभार ही दिखता है एक-आध कटहल. बंदा बहुत देर से खड़ा है उस विशाल पेड़ के नीचे. आज उसे डर नहीं है. अब इस बुढ़ऊ पेड़ में फल पैदा करने का दम ही कहां रहा? तभी मित्र उसे खींच लेते हैं. धम्म… जोर की आवाज हुई. बचा हुआ कटहल गिरा है. बंदा घबरा गया. अचानक उसे याद आता है, अब यह कोठी भुतही कहलाती है. बंदा फौरन खिसक लेता है. मित्र कहते रह जाते हैं- यह कटहल तो लेते जाओ.
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
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