बात अगर शहरी विकास की करें, तो यहां निकायों की भूमिका काफी अहम होती है. शहर को संवारना नगर निकायों की जिम्मेदारी है. परंतु कई बार निकायों के जनप्रतिनिधियों और सरकार के बीच समन्वय न होने से विकास कार्यो की गति मंथर पड़ जाती है. सही तरीके से विकास नहीं हो पाता है. नतीजतन, हर साल काफी फंड लैप्स हो जाता है. हालांकि इसके लिए नगर निकायों की कार्यशैली भी जिम्मेवार है.
अक्सर ऐसा होता है कि नगर निकाय की ओर से सरकार को भेजी जानेवाली योजनाओं की फाइलें लटक जाती हैं. यह किसी से छिपा नहीं है कि राजधानी में सरकार व नगर विकास विभाग के अधिकारियों की मनमर्जी चलती है. कहा यहां तक जाता है कि जब तक कमीशन तय नहीं होता है तब तक फाइलों पर हस्ताक्षर नहीं होता है. भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करनेवाली सरकार के कार्यकाल में भी ऐसी नौबत का आना दुखद है. क्या ऐसे अंदाज में काम करने से सही समय पर विकास संभव है? बढ़ते शहरीकरण की वजह से नगर निकायों की जिम्मेदारी और बढ़ गयी है. ग्रामीण आबादी के शहरों की ओर पलायन से नगर विकास विभाग की चुनौतियां बढ़ गयी है.
शहर के गरीब लोगों के लिए रहने का इंतजाम करना, रिक्शाचालकों-मजदूरों आदि के ठहराव की व्यवस्था जैसे काम करने की जरूरत बढ़ गयी है. पेयजल और स्वच्छता के इंतजामात प्रदेश के किसी भी शहर में ऐसे नहीं हैं, जिन्हें देख कर खुश हुआ जा सके. हर साल हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी प्रदेश के अधिकतर शहरों में गंदगी का अंबार देखा जा सकता है. लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं कराया जा सका है. शहर के बीचोबीच बस स्टैंड आदि की मौजूदगी नागरिकों की परेशानी का सबब बनी हुई है. खैर, इसको दूर करने के लिए जरूरी है कि राज्य सरकार निकायों के साथ सीधा संवाद करें.
शायद सरकार इस बात को समझ चुकी है. इस सबके बीच नगर विकास मंत्री बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने निकाय के अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों में संजीवनी भरने का काम किया है. नतीजा कुछ भी हो, लेकिन इससे निकाय से जुड़े लोगों में यह संदेश अवश्य गया कि अब निकायों की फाइल सरकार के पास नहीं रुकेगी. यह राज्य के विकास के लिए जरूरी भी है.