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समाज के बीच ले जानी पड़ेगी यह बहस

राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर एक समाज के तौर पर हम किधर जा रहे हैं, इस पर बहस कुछ माह से देश में किसी-न-किसी बहाने चल रही है. यह बहस महत्वपूर्ण है. इसे टीवी की चर्चाओं तथा राजनीतिक भाषणबाजी से निकाल कर आम भारतीय के बीच ले जाने की जरूरत है. इसके लिए जरूरी […]

राजेंद्र तिवारी

कॉरपोरेट एडिटर

प्रभात खबर

एक समाज के तौर पर हम किधर जा रहे हैं, इस पर बहस कुछ माह से देश में किसी-न-किसी बहाने चल रही है. यह बहस महत्वपूर्ण है. इसे टीवी की चर्चाओं तथा राजनीतिक भाषणबाजी से निकाल कर आम भारतीय के बीच ले जाने की जरूरत है. इसके लिए जरूरी है कि महत्वपूर्ण मसले को कठिन शब्दों से निकाल कर आम बोलचाल और जीवन से जोड़ कर रखा जाये. संविधान की दुहाई देते रहने से काम नहीं चलनेवाला. पिछले दिनों हमने देखा, संसद में संविधान पर हुई विशेष चर्चा को.

क्या कोई बता सकता है कि चर्चा से क्या निकला? क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है कि संविधान से सहमति रखनेवाले और संविधान के कई पहलुओं से असहमति रखनेवाले, दोनों ही तरह के नेताओं ने संविधान के पक्ष में कसीदे पढ़े और अपने-अपने तरीके से व्याख्या की. संविधान के कई प्रावधानों पर बरसों से सवालिया निशान उठते रहे हैं, यह हम सब जानते हैं. लेकिन संसद में यह ईमानदारी नहीं दिखी कि इन सवालों पर खुल कर बहस हो जाये. जब हमारे नेतागण इतने महत्वपूर्ण मसलों पर खुल कर बहस करने से कतरा रहे हों, तो मामला आमजन के बीच ले जाने की जरूरत और बढ़ जाती है.

आजादी के तुरंत बाद, समाज में नवनिर्माण का एक सपना था. यह सपना संविधान की रोशनी में उपजा. अगर 50-60 के दशक पर नजर डालें, तो पाएंगे कि राजनीति में नफा-नुकसान की जगह समाज को संविधान की रोशनी में आगे में ले जाने की प्राथमिकता नेताओं में नजर आती थी.

असहमतियों को दुश्मनी के तौर पर नहीं, बल्कि एक सोच के तौर पर लिया जाता था. न कोई किसी को नरपिशाच कहता था, न भुजंग प्रसाद. लेकिन, 70 का दशक खलबली वाला रहा. जोड़तोड़ की राजनीति से लेकर निरंकुशता तक का उदय हुआ और बोलबाला भी रहा. आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी जवान हो चुकी थी. इमरजेंसी और उसके बाद के संघर्ष में इसी पीढ़ी की भूमिका रही. लेकिन, 50-60 के दशक के सपनों को जोड़नेवाले पुल खत्म हो गये. 80 के दशक की राजनीति ने आज के माहौल की जमीन तैयार की. 80 के दशक तक समाज किस ओर बढ़ता दिख रहा था और आज वह उससे कितना अलग हो चला है, इसका अनुमान कठिन नहीं है, बशर्ते हम ईमानदारी से उस समय और आज की सामाजिक सोच व दिशा को देख सकें.

जो लोग 70 के दशक में स्कूलों में पढ़ रहे थे, वह जरा अपनी याद्दाश्त पर नजर डालें कि उस समय धर्म और भगवान व देवी-देवताओं को लेकर किस-किस तरह की बातें उनके बीच होती थीं? क्या उस समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता था कि कौन किस धर्म का है, कौन धर्मभीरू है और कौन नहीं? मैं तो ऐसी जगह से आता हूं जहां हिंदू, मुसलमान और सिख, तीनों ही अच्छी संख्या में थे. हमारे मुसलमान साथी हिंदू देवी-देवताओं का मजाक बना देते थे और हिंदू व सिख बच्चे उनके भगवान का. सिख बच्चों को चिढ़ाया जाता था- उनके बड़े बालों, जूड़े व कड़े को लेकर. शोले के डायलाॅग, जिसे धर्मेंद्र ने शिव की मूर्ति के पीछे से बोला था, बच्चों के मनोरंजन के साधन थे, बस उनमें कुछ शब्द बदल दिये जाते थे.

मुसलमान बच्चों को चिढ़ाया जाता था खतने को लेकर, सजदे को लेकर, करबला की लड़ाई को लेकर. लेकिन, सांप्रदायिक वारदात तो दूर की बात, ये बातें हंसी-ठिठोली से आगे कभी बढ़ती ही नहीं थीं. स्कूलों में प्रार्थना, खान-पान आदि को लेकर कभी कोई विवाद होता ही नहीं था और न कभी छुट्टी या किसी त्योहार को लेकर कोई इश्यू. हर त्योहार अपना त्योहार होता था. ईद आती तो सच्चा बालक व प्रेमचंद का हामिद याद आता, दीवाली-दशहरा आता तो राम-रावण याद आते, जन्माष्टमी पर कृष्ण-कंस और बैसाखी पर सिख गुरु. स्कूल में प्रार्थना सभी बच्चे चाव से गाते थे. कभी किसी के माता-पिता ने कोई आपत्ति नहीं की, न ही किसी महंत-मुल्ला या नेता ने. लेकिन आज अपने आसपास ही देख लीजिए कि यह सब कितना बदल गया है.

मैं अगर अपने बचपन की याद करूं तो होली, दीवाली, ईद, बैसाखी और मोहर्रम, ये त्योहार थे हमारे बचपन के.

हमारे गांव के आजू-बाजू दो गांव हैं, जिनमें से एक में सौ फीसदी मुसलमान रहते हैं और दूसरे में सौ फीसदी हिंदू, लेकिन मुझे याद है कि मोहर्रम में दोनों गांवों के बीच होड़ रहती थी कि किसका ताजिया सबसे बड़ा होगा. हमारे गांव में मुसलिम घरों के अलावा, तमाम हिंदू घरों के बाहर छोटे-छोटे ताजिये रखे होते थे. लोग ताजिये की मन्नत मानते थे कि ताजिया बाबा, हमारा फलां काम हो जाये तो अगले साल ताजिया चढ़ाएंगे. ताजिया बाबा की शाम को लोबान से आरती होती थी और प्रसाद बंटता था. कभी किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई.

लेकिन बाद में यह परंपरा मंदिर-मसजिद विवाद की भेंट चढ़ गयी. यह कहानी किसी एक गांव की नहीं है, यह गांव-गांव की कहानी है. जिन लोगों ने वह समय देखा है, आज का माहौल देख कर उनके जेहन में उस समय के माहौल की याद ताजा हो ही आती होगी.

सोचिए कि हम आज जिस माहौल में रह रहे हैं, उसमें हमारे बच्चे या हम खुद उतने ही निशाखातिर होकर उस तरह की बातें कर सकते हैं? यदि नहीं कर सकते तो जरूर कहीं-न-कहीं कुछ गड़बड़ है, जिसे ठीक करने की जरूरत है. यदि यह जरूरत है तो फिर सोचिए, इसे ठीक कौन करेगा- वे लोग जिन्होंने मौजूदा माहौल के लिए खाद-पानी मुहैया कराया है, वे जो इस मौजूदा माहौल से ताकत पाते हैं या वे लोग जो इस माहौल में गड़बड़ महसूस कर रहे हैं और कहीं-न-कहीं आशंकित रहते हैं!

और अंत में…

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ नहीं रहे. 70 के दशक में वह पढ़ने के लिए दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विवि पहुंचे और फिर वहीं के होकर रह गये. कविता उनके लिए शब्दों की जुगाली नहीं थी, बल्कि जीवन से कविता रचते थे. उदय प्रकाश ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है- यह किसी पूर्व घोषित मृत्यु का कालाख्यान है. ‘क्रोनिकल ऑफ अ डेथ फोरटोल्ड.’ गहरा दुःख है. कहीं भीतर से आवाज आती है कि यदि न्याय होता, भाषा आधुनिक, जाति धर्मनिरपेक्ष हो चुकी होती, इससे जुड़ी संस्थाओं में इतना भाई-भतीजावाद, जातिवाद, कुटुंबवाद और भ्रष्टाचार न होता, तो शायद रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ का अंत इस तरह न होता.

यहां प्रस्तुत है विद्रोही जी एक कविता –

‘मैं किसान हूं/ आसमान में धान बो रहा हूं / कुछ लोग कह रहे हैं/ कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता/ मैं कहता हूं, पगले!/ अगर जमीन पर भगवान जम सकता है/ तो आसमान में धान भी जम सकता है/ और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा/ या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा/ या आसमान में धान जमेगा.’

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