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चरित्र चाहिए मुल्क को!

।। हरिवंश ।। किसी भी समाज को संकट में आध्यात्मिक ताकतें रास्ता दिखाती रहीं हैं. 12वीं शताब्दी से 16वीं-17वीं शताब्दी तक, जब भारत लगातार बाहरी आक्रमण झेल रहा था, उसकी संस्कृति, इतिहास और मान्यताओं पर हमले हो रहे थे. राजा भोगी हो गये थे. तब भक्त कवियों ने, सच्चे आध्यात्मिक संतों ने इस देश को […]

।। हरिवंश ।।

किसी भी समाज को संकट में आध्यात्मिक ताकतें रास्ता दिखाती रहीं हैं. 12वीं शताब्दी से 16वीं-17वीं शताब्दी तक, जब भारत लगातार बाहरी आक्रमण झेल रहा था, उसकी संस्कृति, इतिहास और मान्यताओं पर हमले हो रहे थे. राजा भोगी हो गये थे. तब भक्त कवियों ने, सच्चे आध्यात्मिक संतों ने इस देश को राह दिखायी. आज आसाराम बापू या उनके पुत्र नारायण साईं जैसे लोग धर्म और अध्यात्म की बात करते हैं. निर्मल बाबा के टोटकों में देश मुक्ति तलाश रहा है.

-समय से संवाद-

देश किसके हाथ में है? देश की राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या आध्यात्मिक रहनुमाई कौन कर रहा है? किसी क्षेत्र में कोई कमांड (नियंत्रण) में है? कांग्रेस या केंद्र सरकार कभी इतनी असहाय या अशासन की स्थिति में नहीं रही? दरअसल, राजनीति ही चीजों को बेहतर बना सकती है या नष्ट कर सकती है. राजनीति में भी कौन? जो ऊपर हैं, सर्वश्रेष्ठ पदों पर हैं, जिनके हाथों में शासन और सत्ता है. महाभारत का चिर-परिचित वाक्य है, ‘महाजनो येन गत: स पंथा’. समाज के श्रेष्ठ लोग (शासक या अगुआ) जिस रास्ते चलते हैं, शेष लोग उसका अनुकरण करते हैं.

श्रेष्ठ लोग किस हाल में हैं?

इंडिया टुडे (22.07.13) के एक अध्ययन के अनुसार भारत ‘रिपब्लिक ऑफ ब्राइब’ (घूसखोर गणराज्य) है. इसमें उल्लेख है कि भारत में शहरी बाशिंदे हर साल लगभग छह लाख तीस हजार करोड़ रुपये घूस देते हैं. यह राशि दस हजार बोफोर्स घोटालों के बराबर है. यह तो सीधे सत्ता में बैठे लोगों द्वारा लूट है. इतना ही नहीं, केंद्र सरकार की तिजोरी से कोयला आवंटन की फाइलें चोरी चली जायें, यह आज से पहले कभी नहीं हुआ. इन्हीं फाइलों में प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर अन्य संस्थाओं पर गंभीर आरोप हैं. इस चोरी का संदेश, देश में नीचे तक क्या गया है? जब सत्ता के शिखर पर ऐसी स्थिति हो, तो नीचे कुछ भी संभव है. फाइल चोरी तो एक गंभीर सांकेतिक घटना है, ऐसी अनंत-असंख्य चीजें केंद्र सरकार की आंखों के सामने घट रही हैं. लगता है, सरकार का प्रताप-इकबाल ही खत्म हो गया है? कार्यपालिका की मर्यादा, सम्मान और साख पर गहरे सवाल खड़े हो गये हैं. पर किसी को चिंता नहीं है कि इस तरह की राजनीति, शासन या गवर्नेस से क्या असर हो रहे हैं?

हाल में सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश पर एक इंटर्न (ट्रेनी) छात्रा ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाये. इसके ठीक दो दिनों बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व डीन प्रो एसएन सिंह ने भी शिकायत दर्ज करायी. उनके अनुसार उक्त इंटर्न छात्रा के अलावा, उसी सज्जन (पूर्व जज) ने तीन अन्य लड़कियों के साथ यौन र्दुव्‍यवहार किया. इस शिकायत के पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम ने इंटर्न की शिकायत की जांच के लिए तीन सदस्यीय कमिटी बना दी थी. यह सब कानूनी प्रक्रिया चलती रहे. पर सुप्रीम कोर्ट की छवि है, न्याय का अंतिम मंदिर. यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि किस चरित्र के लोग, लोकतंत्र में न्याय मंदिर के शिखर तक पहुंच रहे हैं? कार्यपालिका के कामकाज, चरित्र को तो देश रोज भुगत ही रहा है, पर न्यायपालिका में ऐसी स्थिति होने लगे, तो क्या होगा? यही नहीं, पिछले दिनों गुवाहाटी हाइकोर्ट का एक अजीब फैसला आया कि सीबीआइ गठन सरकारी नियत-कानून या प्रक्रिया के तहत नहीं हुआ है. इतने वर्षो बाद ऐसा फैसला? देश और व्यवस्था को सांसत या अराजकता में डालनेवाला फैसला. दरअसल, केंद्रीय सत्ता (या केंद्र सरकार) कमजोर पड़ती है, तो ऐसा ही होता है. इंदिरा गांधी के रहने तक सर्वोच्च संस्थाओं में ऐसी अराजकता थी? नहीं, क्योंकि इंदिरा गांधी (उनसे हर असहमति के बाद) का प्रताप था, केंद्र का इकबाल था कि कहीं, कुछ भी नहीं होता था.

केंद्र की इस कमजोरी-लाचारी के लक्षण अन्य जगहों पर भी दिखायी दे रहे हैं. पिछले दिनों झारखंड में आलू के भाव आसमान छूने लगे. पता चला कि बंगाल से बिहार और झारखंड आलू ले जाने की मनाही है. क्या यह देश एक है, या अलग-अलग राज्य भी अपने को अलग देश मानते हैं? यह संभव है कि बंगाल के पास आलू संकट हो, तो भी बिहार, बंगाल और झारखंड एक ही अंचल (पूर्वी क्षेत्र) के राज्य हैं. इनके हित एक हैं. सपने एक हैं. गरीबी, अविकास व अन्य चुनौतियां समान हैं. कभी ये एक ही राजनीतिक इकाई थे. एक पहचान से आज ये अलग-अलग पहचानों में बंटे हैं. एक ही देश ‘भारत’ के ये तीन महत्वपूर्ण राज्य हैं. ऐसे संकट क्या ये मिल कर नहीं दूर कर सकते? ऐसा प्रयास ही इस देश की एकता की जड़ें मजबूत करेगा. पर व्यवहार में आज क्या हो रहा है? हर कोई, अपने को अपने सूबे (राज्य) का खुद-मुख्तार (शासक) मान रहा है. यह वक्त है कि जनता चेते, जागे कि कैसे लोगों के हाथ में सत्ता आ गयी है? यही हाल मंहगाई का है. प्याज, आलू, सब्जियों से लेकर अन्य खाने की चीजों के भाव, पिछले आठ महीनों में सबसे ऊपर पहुंच गये हैं (देखें, टाइम्स आफ इंडिया- 15.11.2013). रिजर्व बैंक इस कीमत वृद्धि को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है. पर यह बात तो वर्षो से हम सब सुन रहे हैं, पर व्यवहार या अनुभव की दुनिया में क्या हो रहा है? शासन में सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग हार्वर्ड और आक्सफोर्ड में पढ़े हैं. माना जाता है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पढ़ाई इन जगहों पर होती है. पर सर्वश्रेष्ठ जगहों से पढ़े लोग, सर्वश्रेष्ठ पदों पर बैठे लोग, निजी छवि ईमानदार होते हुए भी, ऐसे लोगों के राज में भारत की क्या स्थिति हो गयी है? अराजकता, महंगाई, कुशासन और सार्वजनिक जीवन में अनैतिक मूल्यों का बोलबाला.

हाल ही में एक किताब आयी है, जो पूरी दुनिया में चर्चा में है. ‘द सीज : द अटैक ऑन द ताज’, लेखक- ब्रिटिश पत्रकार एड्रिएयन लेवी व कैशी स्काट-क्लार्क, प्रकाशक-पेंग्विन. यह पुस्तक 26.11.2008 को मुंबई के ताज होटल पर हुए आतंकवादी हमले की विस्तार से खोजबीन है. काफी छानबीन और पता करने के बाद इन दोनों पत्रकारों ने बताया कि भारत सरकार का एक टॉप अफसर, आतंकवादियों को लगातार गोपनीय सूचनाएं दे रहा था. भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों के अनेक चौंकानेवाले खुलासे इस पुस्तक में हैं. कहां और कितना भटक गया है यह मुल्क कि अपने अस्तित्व से जुड़े सवालों पर भी कोई चिंता-सरोकार नहीं? कितनी आत्मलीन हो गयी है, युवा पीढ़ी?

किसी भी समाज को संकट में आध्यात्मिक ताकतें रास्ता दिखाती रहीं हैं. खासतौर से भारत में. 12वीं शताब्दी से 16वीं-17वीं शताब्दी तक, जब भारत लगातार बाहरी आक्रमण ङोल रहा था, उसकी संस्कृति, इतिहास और मान्यताओं पर हमले हो रहे थे. राजा भोगी हो गये थे. तब भक्त कवियों ने, सच्चे आध्यात्मिक संतों ने इस देश को राह दिखायी. आज आसाराम बापू या उनके पुत्र नारायण साईं जैसे लोग धर्म और अध्यात्म की बात करते हैं. निर्मल बाबा के टोटकों में देश मुक्ति तलाश रहा है. दरअसल, इस देश ने चरित्र खो दिया है. भारतीय राजनीति में गांधी के अवतरण ने इस चरित्र को ही निखारा. संघर्ष की आग में तपा कर गांधी ने नेताओं का चरित्र निखारा. गांधी की ताबीज थी, साधन और साध्य में एकता. यानी कर्म और चरित्र की एकता. बानगी के तौर पर, सिर्फ कामराज को लें. वह अपढ़ थे. समाज के सबसे कमजोर तबके से थे. देश के दो-दो प्रधानमंत्रियों के चयन में उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका. उन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए लोगों ने कहा. उन्होंने मना कर दिया. आज सबसे पहले कुरसी चाहिए. पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे, यही राजनीति का गणित हो गया है. गांधी के दौर की ही एक और बानगी. देशबंधु चित्तरंजन दास (सीआर दास) देश के शिखर के वकील थे. उन दिनों उनकी प्रैक्टिस लाखों की थी, जो आज के मूल्यों में बदल दें, तो करोड़ों-अरबों में होती. उस कमाई को छोड़ कर वह देश बचाने की आग में कूद गये. जीवन के अंतिम दिन लगभग आर्थिक तंगी में गुजारे. बहुत दिनों बाद जब महर्षि अरविंद के बचाव वकील के रूप में वह खड़े हुए, तो उनके उद्गार दुनिया के इतिहास में दर्ज हो गये. यह चरित्र बल के कारण था. भाईश्री (अत्यंत विलक्षण संत) का सुनाया प्रसंग है. बुद्ध के जीवन से अद्भुत प्रसंग.

‘‘श्रावस्ती का था देवदत्त. वहां का नगर-सेठ था. श्रावस्ती और आसपास के लोगों में ‘अनाथपिंडक’ के नाम से विख्यात था. जहां भी वह रहता था, उसके आसपास के इलाके में जिस किसी भी व्यक्ति को भोजन अनुपलब्ध हो, उन्हें अनाथपिंडक भोजन कराता था. एक बार वह अपने बहनोई से मिलने राजगृह आया. राजगृह घूमते हुए उसे जानकारी मिली कि कोई एक दिव्य महापुरुष राजगृह के पास ही गृध्रकूट पर्वत स्थित वन में रहते हैं. उन्हीं दिव्य महापुरुष का दर्शन करने एक दिन अनाथपिंडक चल पड़ा. रास्ते में उसे खयाल आया कि वह एक महापुरुष के पास खाली हाथ जा रहा है. उसे कुछ फल-फूल अपने साथ ले लेना चाहिए था. लेकिन वह अब पीछे लौट भी नहीं सकता था. अपने बहनोई के घर से वह काफी दूर निकल आया था. एकाएक उसकी नजर उससे आगे चल रही एक गरीब बुढ़िया पर पड़ी. उस बुढ़िया के हाथ में कमल का एक फूल था. तेज कदमों से चलते हुए अनाथपिंडक ने उस गरीब, फटे वस्त्रों में लिपटी वृद्धा के नजदीक जाकर कहा, ‘आर्ये! क्या इस कमल के फूल को आप मुङो देंगी?’ थोड़ी देर रुक कर उसने फिर कहा, ‘मैं इसके लिए एक स्वर्ण-मुद्रा आपको दूंगा’. उस वृद्धा ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप चलती रही. साथ चलते हुए अनाथपिंडक ने थोड़ी देर बाद कहा, ‘आर्ये! मैं इस कमल के फूल के बदले आपको सौ स्वर्ण-मुद्राएं दूंगा’. बुढ़िया चुपचाप चलती रही. उसने जैसे कुछ सुना ही नहीं. श्रवस्ती का नगर-सेठ अनाथपिंडक अपने को हारता देख, खीज कर बोला, ‘आर्ये! मैं इस कमल के फूल के बदले आपको एक सहस्र स्वर्ण-मुद्राएं दूंगा’. बुढ़िया इस बार रुक गयी और उसने अनाथपिंडक से कहा, ‘भंते! आप अपना समय नष्ट कर रहे हैं. इस कमल के फूल के बदले धरती की सारी संपत्ति भी कोई मुङो दे, तो भी मैं इसे नहीं दूंगी.’ ऐसा कह कर वह फिर चुपचाप चलने लगी. अनाथपिंडक की उत्सुकता अब अपने शिखर पर थी. वह व्याकुल हो उठा, यह जानने के लिए कि आखिर यह गरीब बुढ़िया इस कमल का करेगी क्या? ऐसी कौन-सी बात है, ऐसा कौन-सा उपलक्ष्य है, जिसके सामने धरती की सारी संपत्ति भी छोटी पड़ गयी? इसलिये अनाथपिंडक ने उस वृद्धा से पूछा, ‘क्या आप मुझे बतायेंगी कि इस फूल का आप क्या करेंगी?’ बुढ़िया ठहर गयी और बोली, ‘गृध्रकूट पर्वत के बगल वाले वन में एक दिव्य महापुरुष रहते हैं. तथागत कहते हैं, उन्हें लोग. उन्हीं को देने ये कमल का फूल मैं ले जा रही हूं.’ स्तब्ध हो गया था, अनाथपिंडक. इस गरीब बुढ़िया की तथागत-भगवान बुद्ध के प्रति गहरी आस्था ने अनाथपिंडक को हिला कर रख दिया. एक ऐसी आस्था, एक ऐसी श्रद्घा जो अमूल्य थी! ऐसे ही अनेक मूल्यों की नींव पर कोई भी सभ्य और सुसंस्कृत समाज खड़ा होता है. बाजार-अर्थव्यवस्था के प्रभाव से आज भारत में उनकी भी बोली लगने लगी है, जो कल तक अमूल्य थे.’’

बहुत पहले जब चरित्र के रास्ते मुल्क भटकने लगा, तो इस मुल्क में एक अकेली आवाज उठी थी, वह आवाज जेपी की थी. 1970 में उन्होंने कहा था, ‘जब मैं देश के नाजुक स्वास्थ्य की दशा की समीक्षा करता हूं, तो यह कहने में मुङो कोई संकोच नहीं कि यह सब गिरते नैतिक मूल्यों का नतीजा है. सार्वजनिक जीवन का कोई भी क्षेत्र, चाहे वह राजनीति हो या सरकार या शिक्षा या कारोबार, व्यापारिक संगठन या सामाजिक संगठन – ऐसा नहीं है, जो गिरते नैतिक मूल्यों से अछूता हो.’ जयप्रकाश नारायण ने जब यह नैतिक मूल्यों का ह्रास देखा, तो मृत्युशय्या से संग्राम में कूद पड़े. देश उनके साथ खड़ा हो गया, क्योंकि उनमें चरित्र बल था. आज देश का पतन निम्नतम धरातल पर है, पर कहीं कोई बेचैन आवाज सुनायी नहीं देती. नेताओं के बारे में कुछ न कहना बेहतर है. सार्वजनिक जीवन में इतना घटिया और निम्न स्तर कभी नहीं रहा. हर नेता एक दूसरे के प्रति ओछी बातें कर रहा है. जो सत्ता के शिखर पर बैठ कर खुद पर संयम नहीं रखते, वो क्या देश और समाज को राह दिखायेंगे?

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