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खतरे की घंटी को सुने संसद

देश के नागरिकों में हमारे जनतांत्रिक स्वरूप को लेकर उदासीनता का भाव पनप रहा है. यही उदासीनता धीरे-धीरे निराशा में बदलती है और किसी भी शासन प्रणाली के लिए इस तरह की निराशा खतरे की घंटी ही है. हाल ही में लोकनीति-सीएसडीएस ने एक सर्वेक्षण किया था. प्रस्ताव था कि ‘हमें संसद और चुनावों से […]

देश के नागरिकों में हमारे जनतांत्रिक स्वरूप को लेकर उदासीनता का भाव पनप रहा है. यही उदासीनता धीरे-धीरे निराशा में बदलती है और किसी भी शासन प्रणाली के लिए इस तरह की निराशा खतरे की घंटी ही है.

हाल ही में लोकनीति-सीएसडीएस ने एक सर्वेक्षण किया था. प्रस्ताव था कि ‘हमें संसद और चुनावों से पीछा छुड़ा कर निर्णय लेने का काम किसी एक मजबूत नेता को सौंप देना चाहिए.’ इस पर अपनी राय देनेवालों में से लगभग 39 प्रतिशत ने इसका समर्थन किया था.

इसी प्रस्ताव में ‘मजबूत नेता’ के बजाय ‘सेना’ और ‘विशेषज्ञ’ के बारे में पूछे जाने पर भी लगभग इतने ही लोगों ने अपनी राय प्रस्ताव के पक्ष में दी थी. ये आंकड़े समाचार तो बने थे, पर मीडिया ने इसे विशेष महत्व नहीं दिया. राजनीतिक दलों ने भी इस पर कोई टिप्पणी नहीं दी. इस उपेक्षा से देश में जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रति एक उदासीनता झलकती है. हालांकि, संतोष की बात है कि मात्र 39 प्रतिशत ही इस तरह से सोच रहे हैं, पर यह संकेत है कि देश में जनतंत्र की स्थिति, विशेषकर संसद और विधानसभाओं में जिस तरह से काम-काज चल रहा है, को देखते हुए जन-सामान्य में निराशा बढ़ रही है.

संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो चुका है. लोकसभा में सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है, लेकिन राज्यसभा में स्थिति सरकार के पक्ष में नहीं है. केंद्र सरकार को आशा थी कि राज्यों के चुनाव-परिणाम भविष्य में स्थिति बदलने में सहायक होंगे, पर बिहार चुनाव-परिणाम ने इसे धूमिल कर दिया. उधर, जो मुद्दे सरकार के सामने हैं, वे सभी पिछले सत्र में भी थे. इसलिए यह आशंका स्वाभाविक है कि कहीं यह सत्र भी शोर-शराबे की भेंट न चढ़ जाये. संसद का पिछला सत्र हमारे संसदीय इतिहास में संभवतः सबसे कम काम-काज वाला था. राज्यसभा में एक भी गैर-वित्तीय विधेयक पारित नहीं हो पाया था और लोकसभा में भी सिर्फ आठ विधेयक पारित हो पाये थे. पिछली सरकार में भाजपा द्वारा और अब कांग्रेस द्वारा सदन में कार्रवाई न चलने देना यही दिखाता है कि हमारे राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएं उनके निजी स्वार्थ तय करती हैं, देश का हित नहींö. सभी दल अपने निजी स्वार्थों को ही देश का हित मानते हैं!

राजनीतिक दलों की इसी मानसिकता के चलते देश के नागरिकों में हमारे जनतांत्रिक स्वरूप को लेकर उदासीनता का भाव पनप रहा है. यही उदासीनता धीरे-धीरे निराशा में बदलती है और किसी भी शासन प्रणाली के लिए इस तरह की निराशा खतरे की घंटी ही है. दुर्भाग्य से, हमारा राजनीतिक नेतृत्व इस घंटी की आवाज को सुनना भी नहीं चाहता.

आजादी के बाद के लगभग सात दशकों में हमने अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था को बिखरने नहीं दिया है. लेकिन, सच्चाई यह भी है कि इस दौरान ऐसे बहुत से कार्य हुए हैं (कांड पढ़िए), जो हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था को तो कमजोर बनाते ही हैं, हमारे विश्वास को भी कमजोर करते हैं. यह एक गंभीर चेतावनी है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास के संदर्भ में हुए सर्वेक्षण में 39 प्रतिशत लोगों ने संसदीय पद्धति के प्रति अपनी निराशा व्यक्त की है. अर्से से संसद में जिस तरह काम-काज नहीं होने दिया गया है, उससे जनता में निराशा का भाव पनपना स्वाभाविक है. संसदीय अवनति लगातार बढ़ती दिख रही है. इसका उदाहरण है मंत्रिमंडल के काम करने का तरीका. हमारी सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार, प्रधानमंत्री जिस मंत्रिमंडल का मुखिया होता है, वह सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होता है. पहले भी प्रधानमंत्री सामूहिक दायित्व के नाम पर अपने हाथ में विशेषाधिकार रखने के प्रयास करते रहे हैं, पर वर्तमान शासन-काल में यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है.

एक तरफ मंत्रिमंडल प्रधानमंत्री कार्यालय में सिमटता नजर आ रहा है, तो दूसरी ओर संसद की महत्ता भी कम हो रही है. प्रधानमंत्री का संसद में कम उपस्थित होना भी एक तरह से संसद की अवमानना ही है. फिर, जिस तरह से अध्यादेशों के जरिये शासन चलाने की कोशिश हो रही है, वह असांविधानिक न होते हुए भी संसदीय व्यवस्था को कमजोर बनानेवाली ही है. जनतांत्रिक पद्धति का अर्थ है बहस व विचार-विमर्श के द्वारा निर्णय लेना. दुर्भाग्य से, संसद में यह नहीं हो रहा. सरकार यह करा नहीं पा रही, विपक्ष ऐसा होने नहीं दे रहा. एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर सरकार और विपक्ष दोनों जनता की आस्था को क्षति पहुंचाते हैं. इसी का परिणाम है कि जनता किसी मजबूत शासक, सेना या विशेषज्ञों की जरूरत महसूस करने लगी है. कम संख्या वाले विपक्ष को महत्वहीन समझकर-बताकर सरकार अपने अहं को तो संतुष्ट कर सकती है, पर इससे जनतांत्रिक व्यवस्था की महत्ता कम होती है. संसदीय व्यवस्था में यदि अविश्वास पनपता है, तो इसके लिए सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष, दोनों, उत्तरदायी होंगे, पर सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके बरताव से अजनतांत्रिक संकेत न मिलें. और इसका बड़ा दायित्व स्वयं प्रधानमंत्री पर है. पर क्या वे इसे समझना चाह रहे हैं?

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

navneet.hindi@gmail.com

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