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देश को ‘सुधारों’ से आगे सोचना होगा

समाज बाहरी तौर पर सरकारों द्वारा नहीं बदले जाते, बल्कि उनमें बदलाव सांस्कृतिक रूप से आंतरिक तौर पर होता है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रधानमंत्री व्यावहारिक रूप में स्पष्टता दिखा पाते हैं, जो वे कहते हैं? एक सुपर पावर बनने के लिहाज से भारत के लिए क्या चीजें जरूरी हैं? पहली चीज […]

समाज बाहरी तौर पर सरकारों द्वारा नहीं बदले जाते, बल्कि उनमें बदलाव सांस्कृतिक रूप से आंतरिक तौर पर होता है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रधानमंत्री व्यावहारिक रूप में स्पष्टता दिखा पाते हैं, जो वे कहते हैं?
एक सुपर पावर बनने के लिहाज से भारत के लिए क्या चीजें जरूरी हैं? पहली चीज तो यह है कि उसे एक महाशक्ति यानी ग्रेट पावर होना होगा. अंतरराष्ट्रीय संबंध में इसे एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया गया है- जिसके पास वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव के प्रयोग की योग्यता होती है. हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पांच स्थायी सदस्यों- अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन- को महाशक्तियों में गिन सकते हैं. सुरक्षा परिषद् में वीटो के विशेषाधिकार की वजह से भी, और अपने धन व सैन्यशक्ति की वजह से भी, वे वैश्विक घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं. फ्रांस और ब्रिटेन जैसे कुछ ऐसे देशों में सैन्यशक्ति में कमी की जा रही है, क्योंकि देशों के बीच अब युद्ध की संभावनाएं बहुत कम हैं.
इन पांच देशों के बाद दो देशों- जर्मनी और जापान- का स्थान आता है, जो सैन्यशक्ति की दृष्टि से तो नहीं, पर आर्थिक रूप से वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली हैं. इनके बाद छोटे देश हैं, जो धनी तो हैं, लेकिन कोई विशेष प्रभाव नहीं रखते हैं. इस श्रेणी में स्पेन, सऊदी अरब, सिंगापुर, ताइवान, इटली, चिली, ऑस्ट्रेलिया, नॉर्डिक देश आदि गिने जा सकते हैं.
भारत को अधिक आबादी वाले उन देशों के समूह में रखा जा सकता है, जो धनी भी नहीं हैं और संसाधनों की कमी के कारण सैन्यशक्ति में भी सबल नहीं हैं. इनमें दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, ब्राजील और नाइजीरिया जैसे देश शामिल हैं. मेरा भारत और नाइजीरिया को साथ रखना पाठकों को अजीब लग सकता है, पर दोनों देशों की प्रति व्यक्ति आय समान है. भारत अगर अधिक प्रासंगिक दिखाई देता है, तो उसका कारण हमारी बड़ी आबादी है.
तुलनात्मक रूप से देखें, तो भारत का सामान्य सकल घरेलू उत्पादन डॉलर के हिसाब से इटली से बहुत कम है. लेकिन, इटली की आबादी मात्र छह करोड़ ही है, यानी भारत से उसकी आबादी 20 गुना कम है. इस तरह से हमारी प्रति व्यक्ति उत्पादकता इटली के निवासियों की उत्पादकता का सिर्फ पांच फीसदी ही है. हालांकि, अब इसमें कुछ सुधार हो रहा है, पर इसकी गति बहुत धीमी है.
ऐसे में हमें भारत को महाशक्ति बनाने के लिए क्या करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस कार्य में सरकार की भूमिका बहुत कम है. अगर हम वित्तीय अखबारों को देखें, तो उनका मुख्य विषय ‘सुधार’ है. उनका जोर इस बात पर है कि अगर भारत को सफल होना है, तो सरकार को सुधार-संबंधी नीतियां लागू करनी होंगी. आम तौर पर सुधारों का अर्थ विनियमन और व्यापार करने में सुगमता है. तथ्य यह है कि बहुत-से देशों में सुधार कार्यक्रम लागू हुए हैं, लेकिन वे महाशक्ति नहीं हैं. ऐसे भी देश हैं, जिन्होंने सुधार नहीं किये, पर वे महाशक्ति बन गये हैं. सोवियत संघ एक केंद्रीय अर्थव्यवस्था थी, जिसका अर्थ है कि हर काम सरकार द्वारा संचालित होते थे और वहां कोई सुधार नहीं हुए थे. लेकिन, 1947 और 1975 के बीच सोवियत संघ की विकास दर दो अंकों में थी और उसकी प्रति व्यक्ति आय भारत से बहुत अधिक थी. क्यूबा में भी विनियमन नहीं हुआ है, पर मानव विकास सूचकांकों (स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए) में वह दुनियाभर में उच्चतम स्थान पर है. इससे स्पष्ट है कि सिर्फ ‘सुधार’ ही वह चीज नहीं है, जिसकी भारत को जरूरत है.
इतिहास में सभी सफलीभूत देशोंने बिना किसी अपवाद के दो शर्तें पूरी की हैं. पहली स्थिति है शासन की गहरे तक पहुंच. मैं इसे सरकारों के हिंसा पर एकाधिकार, नागरिकों को स्वेच्छा से कर-प्रणाली के सामने समर्पण करना तथा बेहतर ढंग से न्याय और सेवा देने की क्षमता के रूप में परिभाषित करता हूं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि राज्य का स्वरूप पूंजीवादी है या फिर समाजवादी, तानाशाही या लोकतांत्रिक है. उसकी पैठ गहरे तक होनी चाहिए. भारतीय शासन इन सभी स्तरों पर नियमित रूप से असफल रहा है. गुजरात में भी यही स्थिति रही है.
दूसरी शर्त यह है कि समाज में मजबूती और गतिशीलता होनी चाहिए. एक प्रगतिशील समाज रचने की क्षमता और परोपकार की भावना से चिह्नित होता है. यह एक जटिल विषय है, इसलिए इस पर कभी विस्तार से लिखूंगा. जहां तक पहली शर्त का सवाल है, और इसे साधारण शब्दों में कहें, तो इसका अर्थ कानूनों और कानूनों में बदलाव से नहीं है. संक्षेप में, इसका ‘सुधार’ से लेना-देना है. यह शासन के बारे में है. इसका संबंध सरकार के अपने कार्यक्रमों व नीतियों को लागू करने की क्षमता से है. इसके अभाव में कानून में बदलाव का कोई मतलब नहीं रह जाता है.
यही कारण है कि मुझे मलयेशिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण दिलचस्प लगा. उनके बयान के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं- ‘सुधार अपने-आप में कोई साध्य नहीं है. मेरे लिए सुधार लक्ष्य की ओर लंबी यात्रा का एक पड़ाव भर है. लक्ष्य भारत का परिवर्तन करना है.’ उन्होंने यह भी कहा कि जब वे मई, 2014 में निर्वाचित हुए थे, अर्थव्यवस्था के सामने उच्च वित्तीय और चालू खाते के घाटे, लंबित इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं और निरंतर मुद्रास्फीति जैसी गंभीर चुनौतियां थीं. उनके अनुसार, ‘यह स्पष्ट था कि सुधारों की आवश्यकता है. हमने खुद से यह सवाल पूछा- किसके लिए सुधार? सुधार का उद्देश्य क्या है? क्या यह सिर्फ सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि की दर में बढ़ोतरी करने के लिए है? या यह समाज में एक बदलाव लाने के लिए है? मेरा जवाब साफ है- हमें ‘बदलाव के लिए सुधार’ करना चाहिए.’
मेरी राय में उन्होंने मुद्दे को समुचित रूप में प्रस्तुत किया है. हालांकि, मेरा स्पष्ट मानना है कि समाज बाहरी तौर पर सरकारों द्वारा नहीं बदले जाते, बल्कि उनमें बदलाव सांस्कृतिक रूप से आंतरिक तौर पर होता है. बहरहाल, यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री व्यावहारिक रूप में भी वही स्पष्टता दिखा पाते हैं, जैसा कि वे अपने विचारों में करते हैं.
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@me.com

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