।। अवधेश कुमार ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर दिग्विजय सिंह के बयानों को विरोधी चाहे जिस रूप में लें, एक-दो प्रसंगों को छोड़ कर कांग्रेस के अंदर उन्हें हमेशा व्यापक समर्थन मिलता रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस के भीतर की सामूहिक भावना को वे अपने अंदाज में व्यक्त करते रहे हैं या वे जो कुछ बोल जाते हैं वही कांग्रेस की मुख्य धारा की भावना बन जाती है.
केंद्र सरकार व कांग्रेस पर करीबी नजर रखनेवाले जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआइ को ‘पिंजरे में बंद तोता’ व एक प्रशासनिक न्यायाधीकरण द्वारा खुफिया ब्यूरो को ‘चूजा’ कहने के विरुद्ध दिग्विजय सिंह की नाखुशी का बयान अकेले उनका नहीं है. कांग्रेस प्रवक्ता या मंत्री औपचारिक तौर पर जो भी कहें, सच यही है कि वे जो बात आपस में बोल रहे थे, उनके अंदर इन दोनों संस्थाओं के विरुद्ध जो खीझ पैदा हुई है, उसे ही दिग्विजय सिंह ने प्रकट किया है. विरोधी पार्टियों को दिग्विजय का बयान नागवार गुजरा है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख को देश में व्यापक समर्थक देखते हुए आम नागरिकों द्वारा भी उनकी बातों का विरोध स्वाभाविक ही है.
आखिर सुप्रीम कोर्ट या अन्य पीठ ने ऐसी टिप्पणी क्यों की? तत्काल मामला कोयला घोटाले का है. यदि सीबीआइ ने स्वतंत्रता व निष्पक्षता से जांच की होती, उसमें सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता, तो इतनी कड़ी टिप्पणी की जरूरत ही नहीं होती. न्यायालय को जांच रिपोर्ट के आधार पर न्यायिक कार्यवाही आगे बढ़ाने की बजाय पिछली तीन सुनवाई इस पर करनी पड़ी कि किन-किन ने जांच संबंधी स्थिति रिपोर्ट देखी और उनके निदेर्शो पर क्या परिवर्तन किये गये. अगर सीबीआइ निदेशक रणजीत सिन्हा के पिछले दो शपथपत्रों को सच मानें, तो रिपोर्ट को देखा भी गया और उसमें बदलाव भी हुए. इसके बाद उस संस्था के प्रति सम्मान भाव कहां शेष रह सकता है!
वैसे भी सीबीआइ का राजनीतिक उपयोग कोई छिपा तथ्य नहीं है. मुलायम सिंह यादव व उनके परिजनों तथा मायावती के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति मामले में सीबीआइ की लगातार घुमावदार भूमिका ने इसके साथ सरकार के रवैये को भी कठघरे में खड़ा किया है. केंद्र से लेकर राज्यों तक, सरकारें अपनी खुफिया इकाइयों का मनमाना इस्तेमाल करती हैं. सरकारों द्वारा दुरुपयोग के कारण देश की खुफिया संरचना का स्तर ऊंचा नहीं उठ पाया.
आतंकी हमलों में वृद्धि के बाद इस ओर पूरे देश का ध्यान गया. आलोचनाओं के बाद खुफिया संरचना में परिवर्तन के कुछ कदम उठाये भी गये, पर राजनीतिक हस्तक्षेप और विरोधियों के विरुद्ध इस्तेमाल की प्रवृत्ति का अंत नहीं हुआ. इसके कुपरिणाम हम समय-समय पर भुगत रहे हैं. यह स्थिति न तो सुप्रीम कोर्ट ने पैदा की है, न ही प्रशासनिक पीठ ने.
मोटे तौर पर दिग्विजय सिंह के इस प्रश्न का समर्थन किया जा सकता है कि क्या ऐसी टिप्पणियां करके हम अपनी संस्थानों को छोटा नहीं कर रहे? पर हमारा प्रतिप्रश्न यह है कि क्या ये टिप्पणियां निराधार हैं? इसका उत्तर हम-आप आसानी से दे सकते हैं. संस्थानों का सम्मान नहीं होगा, उनकी छवि विकृत हो जायेगी, तो धीरे-धीरे पूरी राज व्यवस्था का क्षय हो जायेगा.
लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वस्थ और समुन्नत होना उसकी संस्थाओं की मजबूती और उसके सम्मान पर ही निर्भर है, इसका ध्यान शासन के हर एक अंग को भी रखना चाहिए. सभी एक-दूसरे का सम्मान करें, यही लोकतांत्रिक राज व्यवस्था में यथेष्ट है. पर सम्मान और दायित्व निर्वहन, दोनों के बीच अन्योन्याश्रित संबंध हैं. यह तो संभव नहीं है कि संस्थाएं अपने दायित्व का निर्वहन न करें, सरकारों की इच्छा के अनुसार काम करने लगें, झूठ को स्थापित करने में अपना संसाधन लगा दें, फिर भी उनका सम्मान हो.
सीबीआइ की भूमिका अपराध और भ्रष्टाचार की जड़ तक जाकर दोषियों को कानून के कठघरे में खड़ा करना है. खुफिया ब्यूरो का कार्य शासन को उसकी नजर से बाहर घट रहे सच से अवगत कराते रहना है.
यानी खुफिया ब्यूरो शासन की आंख, कान और नाक हैं. ये केवल राज्य या नागरिकों के विरुद्ध पैदा होनेवाले खतरे से ही अवगत नहीं कराते, जन भावना को भी शासन की नजर में लाते हैं. ये जो सच सामने लाते हैं, उनके आधार केवल सुरक्षा नीति ही नहीं, शासन की सामाजिक-आर्थिक नीतियां भी निर्धारित होती हैं.
यानी ये दोनों संस्थाएं हमारी सुरक्षा ही नहीं, सुरक्षा को खतरा पहुंचानेवालों को नंगा करने और समाज के लिए न्याय सुनिश्चित करने के शासन के मुख्य लक्ष्य को पूरा करने के दो स्तंभ हैं. इनकी सूचना का शत-प्रतिशत सच होना अपरिहार्य है, तभी संस्थाओं पर विश्वास पुनर्स्थापित हो सकेगा.