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चुनाव में चीन लिखेगा नेपाल की नियति!

।। पुष्परंजन।। (ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक) नेपाल के जो मतदाता 19 नंवबर को वोट डालेंगे, वह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि उनके द्वारा चुने हुए नेता संविधान बना देंगे ही. नेपाल में सरकार का कामकाज 15 जनवरी, 2007 के अंतरिम संविधान के आधार पर चल रहा है. पिछला आम चुनाव 10 […]

।। पुष्परंजन।।

(ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)

नेपाल के जो मतदाता 19 नंवबर को वोट डालेंगे, वह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि उनके द्वारा चुने हुए नेता संविधान बना देंगे ही. नेपाल में सरकार का कामकाज 15 जनवरी, 2007 के अंतरिम संविधान के आधार पर चल रहा है. पिछला आम चुनाव 10 अप्रैल, 2008 को हुआ था. दो साल के लिए गठित संसद की अवधि को तीन साल तक खिसकाने की कला दुनिया के किसी संगठन को सीखनी हो, तो उसे नेपाल जाना चाहिए. चुनाव का सबसे सुलगता सवाल है, नेपाल के अंदरूनी मामले में भारतीय हस्तक्षेप. ‘भारतीय विस्तारवाद’ का विरोध एक बड़ा मुद्दा है. राष्ट्रवादियों को इस बात पर आपत्ति है कि रॉ प्रमुख आलोक जोशी नेपाल आकर नेताओं से क्यों मिलते हैं. भारत के विदेश मंत्री, दूसरे नेता, नौकरशाह और कूटनीतिक नेपाल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने के बहाने क्यों दिशा-निर्देश देते रहते हैं. आपत्ति उचित है. नेपाल, बिहार या बंगाल जैसा भारत का कोई राज्य नहीं है कि हमारे नेता, नौकरशाह, खुफियावाले ‘मान न मान, मैं तेरा मेहमान’ की तरह जायें, और उसे दिशा-निर्देश देते फिरें. इस ‘कूटनीतिक उपनिवेशवाद’ को नियंत्रित करने की जरूरत है.

क्या कभी नेपाल के राष्ट्रवादी इसकी वजह जानने की जरूरत महसूस करते हैं? मोहन वैद्य किरण, सीपी गजुरेल आज की तारीख में नेपाल के सबसे बड़े राष्ट्रवादी हैं. 1935 में ‘प्रजा परिषद्’, जो नेपाल का पहला राजनीतिक दल था, से लेकर नेपाली कांग्रेस, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियां, मधेश की तमाम पार्टियों का इतिहास पलटिए, तो पता चलेगा कि उनकी जड़ें भारतीय जमीन से जुड़ी हुई हैं. नेपाल की ये पार्टियां भारत में पनपीं, और बाद में इनका विस्तार मेची से महाकाली तक हो गया. नेपाल में एक भी पार्टी का नाम कोई बताये, जिसकी बुनियाद चीन में रखी गयी हो. औरों की छोड़िए, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अतीत के कुछ पन्नों को पलटिए, तो यह स्पष्ट होता है कि भारत की जमीन पर इन्होंने अपनी जड़ें तैयार की थीं. 1968 में गोरखपुर कांग्रेस को याद कीजिए, जब पुष्प लाल श्रेष्ठ ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (पुष्प लाल) का गठन किया था. ‘नया जनवाद’ के नारे के साथ कॉमरेड पुष्प लाल ने अपनी पार्टी का मुख्यालय बनारस में स्थापित किया था. फिर से गोरखपुर की चर्चा नवंबर, 1984 में हुई, जब नेकपा (मशाल) ने पांचवीं कांग्रेस को आहूत किया और मोहन वैद्य किरण इस पार्टी के महासचिव बनाये गये. बारह सदस्यीय सेंट्रल कमेटी में ‘प्रचंड’, सीपी गजुरेल और देव गुरूंग जैसे नेताओं के बारे में बताना इसलिए जरूरी है, क्योंकि आज इन्हें भारत एक विस्तारवादी देश लगता है.

प्रचंड, बाबुराम भट्टराई और मोहन वैद्य किरण जैसे नेता भले ही जनयुद्घ नेपाल के जंगलों से चला रहे थे, लेकिन इनके भूमिगत होने का ठिकाना दिल्ली, नोएडा, चेन्नई, गोरखपुर, पटना, बनारस, कोलकाता और सिलीगुड़ी जैसे शहर हुआ करते थे. तब इन्हें सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान ही लग रहा था. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि कॉमरेड किरण और सीपी गजुरेल को भारत से ‘एलर्जी’ हो गयी? दरअसल, जनयुद्घ के दौरान 2003 में मोहन वैद्य सिलीगुड़ी में गिरफ्तार कर लिये गये. तब वे आंख का ऑपरेशन कराने जा रहे थे. उसी साल 20 अगस्त, 2003 को कॉमरेड सीपी गजुरेल चेन्नई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से गिरफ्तार कर लिये गये. जेल में बुरे व्यवहार के कारण गजुरेल का भ्रम भारत से टूट चुका था. गजुरेल की तरह, कॉमरेड किरण भारतीय जेल के कड़वे अनुभवों को आज तक नहीं भूले. एक बयान में उन्होंने बोल भी दिया, ‘नेपाल में पंचायत काल के तानाशाही जेल, भारत के लोकतांत्रिक जेल से बेहतर थे.’ कॉमरेड किरण और गजुरेल का विश्वास एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी के नेता प्रचंड पर से भी पिछले साल टूटा और उन्होंने ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी’ की स्थापना की. 33 दलों को एकजुट कर कॉमरेड किरण चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं. यही कारण है कि किरण-गजुरेल की यह विध्वंसकारी जोड़ी चर्चा के केंद्र में हैं. वे कहते हैं कि हमें बाहरी देश, यानी भारत से पंचायत कराने की जरूरत नहीं, हम अपने मामले ख़ुद ही निपटायेंगे.

मगर, नेकपा-माओवादी चेयरमैन मोहन वैद्य किरण को चेयरमैन माओ का देश अब खूब भा रहा है. नौ जुलाई, 2013 को भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद काठमांडू गये, उससे एक दिन पहले कॉमरेड किरण और गजुरेल चीन रवाना हो गये. भारतीय कूटनीति के बहिष्कार का यह उनका अपना तरीका था. उससे एक महीने पहले जून में सीपी गजुरेल, ‘आइसीएपी’ के सम्मेलन में चीनी उपराष्ट्रपति ली युआनछाओ से मिल चुके थे. दिलचस्प है कि किरण और गजुरेल चुनाव नहीं चाहते, और चीन वहां चुनाव चाहता है. चीन ने साढ़े सोलह करोड़ रुपये की चुनाव सामग्री नेपाल चुनाव आयोग को सौंपे हैं. चीनी राजदूत वू चुनथाई ने 27 सितंबर को चुनाव सामग्री सौंपते हुए कहा था, ‘यह चीन की जनता की ओर से नेपाल को दिया समर्थन है. हमें यकीन है कि हम नेपाल में चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न करायेंगे.’ यदि ऐसा बयान भारतीय राजदूत देते, तो यह नेपाल के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप होता. सवाल है कि आखिर नेपाल को चीन-पाक जासूसों का गढ़ कौन बना रहा है?

नेपाल में चुनाव कैसे हो, इस वास्ते चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और काउंसेलर यांग चीशी 24 जून, 2013 को काठमांडो आये थे. चीशी को नेपाली सुरक्षा बल के लिए 3.06 अरब रुपये की ट्रेनिंग अकादमी बनाना है. दो साल पहले चीन की खुफिया एजेंसी, ‘मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट सिक्योरिटी’ (एमएसएस) ने नेपाली पुलिस के लिए साठ लाख युआन का साजो-सामान भेजा था. चुनाव से पहले तक चीन के कितने खुफिया अधिकारी नेपाल आये, इसका ब्योरा देने से सिंह दरबार कन्नी काट रहा है. 2008 में चीन से 30 अलग-अलग शिष्टमंडल नेपाल आये थे. 2013 में इनकी संख्या 50 पार कर गयी. यूपी, बिहार, उत्तराखंड की सीमाओं पर सक्रिय नेपाल-चाइना फ्रेंडशिप एसोसिएशन (नेचा), कनफ्यूसियश इंस्टीट्यूट की दर्जनों शाखाएं हैं. चुनाव से पहले तराई से सटे इलाकों में 33 नये ‘चाइना स्टडी सेंटर’ खोले गये हैं. इनका मुख्य काम चीन के लिए खुफियागिरी और भारत के खिलाफ जनमत तैयार करना है. नेपाली राष्ट्रवादियों से पूछिए कि उन्हें अब क्यों नहीं फर्क पड़ता? चीन की खुफिया एजेंसी ‘एमएसएस’ के प्रमुख हैं, मेंग चिएनजू. चुनाव से पहले नेपाल का कोई भी नेता चीन गया, मेंग से मिला जरूर. प्रचंड, माधव कुमार नेपाल, विजय कुमार गच्छेदार, सीपी गजुरेल आदि..काफी लंबी सूची है इनकी.

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