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करीब दस करोड़ की आबादी वाले बिहार के जनादेश पर देश ही नहीं, दुनिया की भी नजर थी. यह इस नतीजे के दूरगामी महत्व का संकेतक है. राज्य में महागंठबंधन को मिले दो-तिहाई से अधिक बहुमत को देश की मौजूदा सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में भी देखा जाना चाहिए. विकास के एजेंडे के साथ डेढ़ साल पहले […]

करीब दस करोड़ की आबादी वाले बिहार के जनादेश पर देश ही नहीं, दुनिया की भी नजर थी. यह इस नतीजे के दूरगामी महत्व का संकेतक है. राज्य में महागंठबंधन को मिले दो-तिहाई से अधिक बहुमत को देश की मौजूदा सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में भी देखा जाना चाहिए. विकास के एजेंडे के साथ डेढ़ साल पहले बनी केंद्र सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में कोई ऐसी पहल नहीं कर सकी है, जिससे उसके प्रति जनता का भरोसा और मजबूत हो. विकास की राह में अड़चन बता कर भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के प्रयास को देशव्यापी विरोध के कारण वापस लेना पड़ा. संसद में कई जरूरी विधेयक लंबित हैं, पर सरकार विपक्ष को भरोसे में लेने का गंभीर प्रयास करती नहीं दिखती.

‘सबका साथ, सबका विकास’ का लोकप्रिय नारा धीरे-धीरे पाकिस्तान और गाय-गोबर जैसी बकवासों में गुम होता गया. बढ़ती असहिष्णुता और सुनियोजित हिंसा के विरुद्ध जब नामचीन विद्वानों एवं कलाकारों ने आवाज उठायी, तो उसे सुनने की बजाय उनकी मंशा को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया. ‘बहुत हुई महंगाई की मार’ जैसे लोकप्रिय नारे देनेवाली सरकार के कार्यकाल में जरूरी चीजों की महंगाई ने आम लोगों की मुश्किलें बढ़ा दी. आर्थिक मोरचे पर सरकार ने विकास की उस समझ पर आधारित नीतियां बनानी शुरू कर दीं, जिनमें गरीबों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से जुड़े कार्यक्रमों को मिलनेवाले धन में कटौती होने लगी. हालांकि, सरकार विकास और सामाजिक सौहार्द के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रही, पर उसके कई जिम्मेवार नेता अपने गैर-जिम्मेवाराना बयानों से उन्माद और अविश्वास के माहौल को गहरा करते रहे. महागंठबंधन ने केंद्र सरकार की इन्हीं खामियों को मुख्य मुद्दा बनाया. आखिर बिहार के मतदाताओं ने इन मुद्दों को गंभीरता से लिया और महागंठबंधन को भारी जनादेश दे दिया. इससे सामाजिक न्याय और सौहार्द के साथ जनोन्मुखी विकास का एक भरोसेमंद चेहरा भी देश के सामने है.

जाहिर है, बिहार के जनादेश में राज्य से बाहर की सरकारों के लिए भी संदेश है कि वे आर्थिक-राजनीतिक प्राथमिकताओं पर आत्ममंथन करें. उसे तय करना है कि वह जनकल्याण के साथ विकास की राह चुनेगी या कॉरपोरेट मुनाफे को बढ़ा कर उसका एक हिस्सा जनता तक पहुंचने की सैद्धांतिक मृग-मरीचिका के पीछे भागेगी. जीत के बाद सत्ता के मद में चूर होकर जनता के भरोसे से छल करनेवाली सरकारों को समाजवादी नेता डॉ लोहिया के इस कथन को नहीं भूलना चाहिए, ‘जिंदा कौमें पांच साल का इंतजार नहीं करती हैं’.

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