11.3 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

मुरदा है वह देश जहां साहित्य नहीं है

सरकार को यह सोचना होगा कि वह किस भारत का निर्माण करना चाहती है? कोई तानाशाह भी हमेशा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगा सकता. एक साहित्यकार मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है. जिस देश में लेखकों-साहित्यकारों को धमकियां दी जाती हैं, स्वतंत्र विचार रखने के कारण उनकी हत्या की जाती […]

सरकार को यह सोचना होगा कि वह किस भारत का निर्माण करना चाहती है? कोई तानाशाह भी हमेशा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगा सकता. एक साहित्यकार मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है.

जिस देश में लेखकों-साहित्यकारों को धमकियां दी जाती हैं, स्वतंत्र विचार रखने के कारण उनकी हत्या की जाती हो, तर्कवादियों, बुद्धिजीवियों पर प्रहार किया जाता हो, क्या वह देश सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक है? जिस देश में निरंतर असहिष्णुता, हिंसा, आक्रामकता, भयग्रस्तता, अतार्किकता, रूढ़िवादिता, सांप्रदायिकता बढ़ रही हो, वह देश किन अर्थों में ‘विकासशील’ और उन्नत देश माना जायेगा? साहित्य रहित देश अगर मुर्दा देश है, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले करनेवाली शक्तियों को हम किस श्रेणी में रखेंगे? अगर देश का संस्कृति मंत्री लेखकों को पहले लेखन बंद करने की सलाह दे रहा हो, तो संस्कृति के संबंध में उसकी समझ पर प्रश्न-चिह्न लगाना कहां से गलत है? वर्षों पहले नवारुण भट्टाचार्य ने लिखा था- ‘मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’.

पिछले कुछ समय से हिंसक गतिविधियों में ‘हिंदुत्व’ की भागीदारी पर किसी को संदेह नहीं है. ये हिंसक गतिविधियां किसी एक राज्य तक सीमित नहीं हैं, इन हिंसक गतिविधियों पर राज्य और केंद्र सरकार मौन क्यों हैं? सुनियोजित हिंसा और हमलों का पैटर्न समान है. हमले पहले भी हुए हैं, पाबंदियां भी लगी हैं, पर अभी जो हो रहा है, उसे समझने की जरूरत है. पिछले लोकसभा चुनाव के बाद दक्षिणपंथी ताकतें कहीं अधिक आक्रामक हो उठी हैं. बोलने-लिखने के अलावा खान-पान, सोच-विचार, धर्म-विश्वास, असहमति-विरोध, तर्क-विवेक सब पर सुनियोजित ढंग से हमले हो रहे हैं. दाभोलकर, पनसारे की हत्या महाराष्ट्र में हुई और कलबुर्गी की कर्नाटक में. तमिलनाडु में पेरुमल मुरुगन की आवाज दबा दी गयी. अभिनेता रजनीकांत को टीपू सुल्तान पर बननेवाली फिल्म में अभिनय करने से रोका गया. हिंदू धर्म, भारतीय इतिहास, संस्कृति को अवैज्ञानिक तरीकों से देखने-समझने और व्याख्यायित करने की निरंतर कोशिशें हो रही हैं. यह सब बिना किसी मजबूत संगठन के संभव नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अवैज्ञानिक दृष्टि और सोच-समझ के कई उदाहरण हमारे सामने हैं. वैज्ञानिक समझ और दृष्टि के अभाव में बच जाता है केवल ‘धर्म’. हिंदू धर्म की मनोनुकूल, अवसरोचित और राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित व्याख्याएं जारी हैं. सर संघ चालक मोहन भागवत आंबेडकर के व्यक्तित्व में बुद्ध और शंकराचार्य के गुणों का समन्वय देख रहे हैं. शंकराचार्य किन अर्थों में बौद्ध थे? बौद्ध दर्शन और शंकराचार्य के दर्शन में कैसा साम्य है? गो-हत्या पर चिंतित भद्रजनों को मानव-हत्या की चिंता नहीं है.

30 अगस्त को कन्नड़ के सुप्रसिद्ध विद्वान, तर्कवादी, लेखक डॉ एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद उसी दिन बेंगलुरु के सेंट्रल कॉलेज कैंपस के सीनेट हॉल में कन्नड़ लेखकों-साहित्यकारों ने श्रद्धांजलि दी. इस श्रद्धांजलि-सभा की अध्यक्षता साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष सुप्रसिद्ध कन्नड़ कवि, नाटककार, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित डॉ चंद्रशेखर कम्बार ने की थी. सबने एक स्वर से इस हत्या की निंदा की. हिंदी के अधिसंख्य कवि-लेखक कलबुर्गी के महत्व और उनके अवदान से परिचित नहीं हैं. कलबुर्गी के ‘मार्ग4’ ने एक साथ सामान्यजनों और विद्वानों को प्रभावित किया था. उनका एक बड़ा योगदान ‘दलित काव्यशास्त्र’ के निर्माण का है. इस हत्या के कुछ दिनों बाद 4 सितंबर को उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाने की घोषणा की. दादरी घटना ने समस्त देशवासियों का ध्यान खींचा. मामला लेखक की सुरक्षा के साथ सामान्य नागरिक की सुरक्षा का भी हुआ और इसी के बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला आरंभ हुआ. अधिसंख्य साहित्यकारों के लिए साहित्य जीवन की रक्षा के लिए है. कुछ ऐसे भी हैं, जिनके लिए साहित्य विलासिता है. सही अर्थों में साहित्य का गुण-धर्म हमारी संवेदना और मानवीय-बौद्धिक चेतना का विकास है. मानवीय-बौद्धिक चेतना को, तार्किकता और विवेक को नष्ट करनेवाली शक्तियां ही फासिस्ट कहलाती हैं. पुरस्कार लौटाने के बाद जीएन देवी के यहां पुलिस क्यों गयी थी?

साहित्य अकादमी की स्थापना 12 मार्च, 1954 को हुई थी. इसकी सामान्य परिषद् में कुल 99 सदस्य हैं. यह राष्ट्रीय साहित्य संस्थान विश्वभर में भारतीय साहित्य के प्रसार के लिए प्रतिबद्ध है. इसने अंगरेजी सहित जिन 24 भारतीय भाषाओं को मान्यता प्रदान की है, उनमें से लगभग आधी भारतीय भाषाओं के कई लेखकों ने देश में बढ़ रही असहिष्णुता और लेखकों व सामान्य भारतीय नागरिकों की हो रही हत्या के विरोध में पुरस्कार लौटाये. हिंदी, कश्मीरी, कन्नड़, उर्दू, अंगरेजी, गुजराती, पंजाबी, कोंकणी, राजस्थानी सभी भाषाओं के महत्वपूर्ण लेखक थे. वित्त मंत्री अरुण जेटली, अन्य केंद्रीय मंत्री, सांसद, भाजपा और संघ के प्रवक्ताओं द्वारा दिये गये उदाहरण और तर्क लचर हैं. सही लेखक हमेशा प्रतिपक्ष में रहता है. वही सच्चा जनप्रतिनिधि है. मंत्री-संतरी, प्रधानमंत्री, शासक से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है लेखकों की आवाज. इस आवाज को दबा कर समाज का विकास नहीं किया जा सकता. अब अकादमी के आयोजनों में संस्कृति मंत्री पधारते हैं. अकादमी अध्यक्ष ने पहले न लेखकों की सुनी, न सांस्कृतिक संगठनों की. 16 सितंबर को 13 हिंदी-उर्दू लेखकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने उनसे कलबुर्गी की हत्या पर शोक-सभा की मांग की थी. उन्होंने ध्यान नहीं दिया. अब 23 अक्तूबर को अकादमी ने हत्या की निंदा की है. पुरस्कार-वापसी विरोध का एक प्रतीक है. 23 अक्तूबर के विरोध प्रदर्शन में ‘लेखकों’ का एक गुट भी था, जो लेखक-समूह के खिलाफ था. उनकी संख्या नगण्य है. महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की सरकार है और उद्धव ठाकरे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की अपील कर रहे हैं. गोवा लेखकों के लिए सुरक्षित नहीं है, उन्हें धमकियां दी जाती हैं.

सरकार को यह सोचना होगा कि वह किस भारत का निर्माण करना चाहती है? कोई तानाशाह भी हमेशा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगा सकता. साहित्यकार मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है. कला, साहित्य, संगीत विहीन मनुष्य एक पशु समान है. विवेक, तर्क, संवेदना, चेतना रहित समाज को हम क्या कहेंगे?

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
delhi@prabhatkhabar.in

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें