डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदी को वैश्विक भाषाओं में से एक बताया है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने गोहत्या पर पूरे देश में प्रतिबंध लगाने की बात कही है. अपनी संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए सरकार का स्वागत है. वास्तव में भाषा इत्यादि संस्कृति के बाहरी आवरण हैं. मूल संस्कृति तो गवर्नेंस में निहित होती है. जैसे अफ्रीका में फासीवाद, ब्रिटेन में राजघराना और अमेरिका में लोकतंत्र दिखता है.
भारतीय संस्कृति में दिये गये गवर्नेंस के स्वरूप पर उतना ही ध्यान देने की जरूरत है, जितना कि वाह्य आवरणों पर. गवर्नेंस पर भारतीय दृष्टि की झलक चित्रकूट में राम और भरत के संवाद में देखने को मिलती है. राम ने पूछा, ‘रघुनंदन! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता?’
इस मुद्दे पर मोदी सरकार के खर्च ज्यादा और आय कम है. इस घाटे को पाटने के लिए सरकार निरंतर ऋण ले रही है. भारतीय निवेशक सरकार को पर्याप्त मात्रा में ऋण देने से कतरा रहे हैं, इसलिए अब विदेशी निवेशकों के माध्यम से सरकार ऋण लेना चाहती है. 2003 में सरकार द्वारा लिया गया ऋण देश की आय का 84 प्रतिशत था. 2013 में यह घट कर 66 प्रतिशत रह गया था, परंतु ऋण में यह कमी सरकार द्वारा हाइवे आदि में उत्पादक निवेश में कटौती करके हासिल की गयी है.
सरकारी कंपनियों की इक्विटी में सरकार निवेश नहीं कर रही है, जो कि घातक है. अनुत्पादक खर्चों जैसे सरकारी कर्मियों के वेतन पूर्ववत बढ़ते जा रहे हैं.
राम ने भरत से पूछा, ‘यदि धनी और गरीब में कोई विवाद छिड़ा हो और वह राज्य के न्यायालय में निर्णय के लिए आया हो, तो तुम्हारे बहुज्ञ मंत्री धन आदि के लोभ को छोड़ कर उस मामले पर विचार करते हैं न?’ माना जा रहा था कि गरीब को राज्य के न्यायालय में आने का रास्ता खुला है, लेकिन मोदी सरकार इस रास्ते को ही बंद कर देना चाहती है.
यह अलग बात है कि मोदी सरकार की इस मंशा की सांसदों की कमेटी ने विरोध किया है, लेकिन सरकार की मंशा में बदलाव के संकेत नहीं हैं.
राम पूछते है, ‘कृषि और गोरक्षा से जीविका चलानेवाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं न?’ मोदी सरकार द्वारा किसान की स्थिति सुधारने को एक भी कारगर कदम नहीं उठाया गया है.
किसान की एकमात्र समस्या कृषि उत्पादों के न्यून दाम है. खेती घाटे का सौदा हो गया है. मोदी सरकार के पास कृषि उत्पादों के दाम बढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं है. ऐसे में किसान सरकार का प्रीतिपात्र कैसे बनेगा? यह सही है कि मोदी सरकार द्वारा बड़े उद्यमियों को आदर दिया जा रहा है और उन्हें देश में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.
गौरतलब है कि ये उद्यमी वैश्य समुदाय का एक छोटा हिस्सा बनाते हैं. देश के वैश्य समुदाय में करोड़ों किसान, स्वरोजगारी, दुकानदार और छोटे उद्यमी शामिल हैं. इस विशाल समुदाय के लिए मोदी सरकार के पास कुछ भी नहीं है, बल्कि नियमों को जटिल बना कर सरकार उनके जीवन को जटिल बनाती जा रही है.
राम पूछते है, ‘क्या तुमने अपने ही समान शूरवीर, शास्त्रज्ञ, जितेंद्रिय, कुलीन तथा बाहरी चेष्टाओं से ही मन की बात समझ लेनेवाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही मंत्री बनाया है.’ आशय है कि शास्त्र जाननेवाले तथा संयमी लोगों को उच्च कर्मचारी नियुक्त करना चाहिए. आज की परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है.
मोदी के कर्मचारी आइएएस अधिकारी यानी गवर्नमेंट सर्वेंट्स हैं. प्रधानमंत्री यदि गलत दिशा में चल रहा है, तो उन्हें सचेत करने के बजाय वे ‘हां में हां’ मिला कर उसे गड्ढे में पहुंचा देते हैं. इस मुद्दे पर सोनिया गांधी ने सही नीति अपनायी थी. नेशनल एडवाइजरी काउंसिल में सर्वेंट्स को नहीं, बल्कि स्वतंत्र विचारकों को रखा गया था.
मोदी सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित हो रही है. मैं नहीं जानता कि सत्य क्या है, परंतु संघ का अंकुश स्वतंत्र विचारों के समान होने में संदेह है. मनुस्मृति में कहा गया कि श्रेष्ठ ब्राह्मण वह है, जिसे पता न हो कि अगला भोजन कहां से आता है.
ऐसे फकीर ही राजा के सामने सर उठाने का साहस जुटा पाते हैं. तुलना में संघ का स्वरूप क्षेत्रीय संगठन का है. इसलिए नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की तर्ज पर संघ का अंकुश कमजोर दिखता है. मोदी की शासन प्रणाली गाय, संस्कृत भाषा एवं योग तक सिमट कर रह गयी है. इस प्रकार की काॅस्मेटिक भारतीयता की तो राम ने चर्चा भी नहीं की थी.
निश्चित रूप से रक्षा तथा विदेश नीति के क्षेत्र में मोदी अच्छा कार्य कर रहे हैं, परंतु यह पर्याप्त नहीं है. महाभारत में लिखा है कि राजा की स्थिति कपड़े से बने मशक जैसी होती है. एक सिलाई भी खुल गयी, तो पानी नहीं ठहरता है. मोदी के मशक में तो केवल दो सिलाई टिकी हुई है. शेष सब खुली पड़ी है. ऐसे में सत्ता कैसे टिकेगी?