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पहले शिक्षा तो मिले

सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा में पंचायत चुनावों में उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने के राज्य सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी है. अदालत ने सरकार की इस पहल पर चिंता जताते हुए कहा कि ऐसी व्यवस्थाओं से समाज का बड़ा हिस्सा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने से वंचित हो जायेगा. हरियाणा […]

सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा में पंचायत चुनावों में उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने के राज्य सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी है. अदालत ने सरकार की इस पहल पर चिंता जताते हुए कहा कि ऐसी व्यवस्थाओं से समाज का बड़ा हिस्सा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने से वंचित हो जायेगा. हरियाणा सरकार ने अपने निर्णय में सामान्य वर्ग के लिए 10वीं कक्षा तथा आरक्षित वर्गों के लिए आठवीं कक्षा पास होने की अहर्ता तय की थी.
साथ ही यह भी नियम रखे गये हैं कि उम्मीदवार के पास पक्का घर और शौचालय हों तथा उस पर बिजली का बकाया न हो. उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों राजस्थान में भी ऐसे ही कानून लाये गये हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक ग्रामीण भारत की 35.74 फीसदी आबादी निरक्षर है. साक्षरों में मध्य विद्यालय तक शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या मात्र 13.53 फीसदी है.
हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में भी 34.27 फीसदी लोग निरक्षर हैं. राज्य की मात्र 12.93 फीसदी ग्रामीण आबादी ने मध्य विद्यालय तक शिक्षा प्राप्त की है. सबसे अधिक निरक्षर राजस्थान में हैं. किसी से छिपा नहीं है कि निरक्षरों या बहुत कम शिक्षा पानेवाली आबादी का बड़ा हिस्सा दलित, पिछड़े, महिला और गरीब समुदायों से है. तथ्य यह भी हैं कि देश की बड़ी आबादी भूमिहीन है और मजदूरी पर आश्रित है. ऐसे में गरीबों के पास पक्का मकान या शौचालय होने की अपेक्षा करना उचित नहीं कहा जा सकता है.
यह सोच सही हो सकती है कि हमारे जनप्रतिनिधि पढ़े-लिखे और योग्य हों (हालांकि अब तक का अनुभव बताता है कि आजादी के बाद से हुए घपलों-घोटालों और आय से अधिक संपत्ति के ज्यादातर आरोपित नेता उच्च शिक्षा प्राप्त हैं), लेकिन न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की कोई भी शर्त लागू करने से पहले जरूरी है कि सबको प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक कारगर एवं समयबद्ध योजना बने और उसके अनुरूप शिक्षा का बुनियादी ढांचा भी तैयार हो. देश की बड़ी आबादी के निरक्षर रहते, चुनावों में ऐसी शर्त लागू करना सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समुदायों की लोकतांत्रिक भागीदारी को संकीर्ण करना होगा, जिसके नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं.
जाहिर है, जब तक समाज व्यापक रूप से शिक्षित और संसाधनों से युक्त नहीं होगा, तब तक ऐसे नियम लागू करने का कोई औचित्य नहीं है. उम्मीद है कि सर्वोच्च अदालत की चिंता के बाद सरकारें इस पर गौर करेंगी और अशिक्षा से जुड़ी बुनियादी समस्याओं को दूर करने पर पहले ध्यान देंगी.

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