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किसे फिक्र है बीमारी और इलाज की

डेंगू के कहर के बीच दिल्ली में पीएम मोदी का स्वच्छता अभियान हो या सीएम अरविंद केजरीवाल का वाइ-फाइ का सपना, दोनों ही कटघरे में खड़े नजर आते हैं. दु निया के सौ से ज्यादा देशों में इलाज की सुविधाएं ही भारत से बेहतर नहीं हैं, बल्कि आबादी के अनुपात में डाॅक्टर और अस्पतालों में […]

डेंगू के कहर के बीच दिल्ली में पीएम मोदी का स्वच्छता अभियान हो या सीएम अरविंद केजरीवाल का वाइ-फाइ का सपना, दोनों ही कटघरे में खड़े नजर आते हैं.
दु निया के सौ से ज्यादा देशों में इलाज की सुविधाएं ही भारत से बेहतर नहीं हैं, बल्कि आबादी के अनुपात में डाॅक्टर और अस्पतालों में बेड भी भारत में सबसे कम है. दूसरी ओर भारत के छात्र सबसे ज्यादा तादाद में दुनिया के 12 विकसित देशों में मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं. स्वास्थ्य सेवा सलीके से चले और बीमारी ना फैले इसके लिए औसतन जितना बड़ा बजट दुनिया के देश बनाते हैं, उसमें भारत का स्थान 122वां है. प्रमुख देशों की तुलना में भारत का स्वास्थ्य बजट सिर्फ 12 फीसदी है. यानी बीमारी प्रकोप के रूप में न फैले या फिर बीमारी की वजहों पर रोक लगे, इसके प्रयास करने में भारत का नंबर दुनिया के पहले सौ देशों में आता ही नहीं है. इसलिए दिल्ली में फैले डेंगू के प्रकोप को लेकर कोई भी आसानी से कह सकता है कि भारत में मौत बेहद सस्ती है.
19 बरस पहले 1996 में पहली बार डेंगू के कहर को दिल्ली ने भोगा था और उसके बाद फिर से दिल्ली डेंगू के उसी मुहाने पर आ खड़ी हुई है, जहां से कोई भी सवाल कर सकता है कि आखिर इलाज को लेकर कौन से हालात भारत को आगे बढ़ने से रोकते हैं. क्योंकि 1996 हो या 2015 डेंगू के मरीज अस्पतालों में उन्हीं हालात में पड़े हुए हैं. बेड की कमी तब भी थी, बेड की कमी आज भी है. तब भी डेंगू जांच को लेकर अस्पताल और लैब कटघरे में थे और आज भी हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि 1996 में तब के पीएम देवगौड़ा को भी अस्पताल जाकर मरीजों से मिलना पड़ा था और सीएम साहिब सिंह वर्मा काम ना करनेवालों को बर्खास्त करने के लिए कैमरे के सामने आ गये थे. लेकिन आज ना पीएम हाल जानने के लिए अस्पताल तक पहुंच पा रहे हैं और ना ही सीएम जनता में भरोसा जगाने के लिए सामने आ पा रहे हैं. तो 19 बरस में बदला क्या?
19 बरस पहले दिल्ली में 1,700 जगहों को संवेदनशील माना गया. 2015 में 2,600 जगहों को संवेदनशील माना जा रहा है. यानी डेंगू मच्छरो के लिए आधुनिक होती दिल्ली के लिए ज्यादा बेहतर जगह बन गयी, जबकि इस दौर में एमसीडी और एनडीएमसी का बजट बढ़ कर छह गुना से ज्यादा हो गया. सड़े हुए बैटरी के खोल, सड़े हुए टायर और डीजल के खाली ड्रम, जिसमें सबसे ज्यादा डेंगू के मच्छर पनपते हैं, उनकी संख्या 19 बरस में छह गुना से ज्यादा बढ़ गयी. यानी वक्त के साथ दिल्ली कैसे और क्यों कब्रगाह में तब्दील हो रही है, इसका अंदेशा सिर्फ दिल्ली की तरफ रोजगार और शिक्षा के लिए हर बरस बढ़ते पांच लाख से ज्यादा कदमों से ही नहीं समझा जा सकता, बल्कि समझना यह भी होगा कि 1981 में क्यूबा ने तय किया कि डेंगू के कहर से बचा जाये, तो उसने 61 करोड़ 80 लाख रुपये 34 बरस पहले खर्च किये. और दिल्ली का आलम यह है कि 2015 में दिल्ली सरकार ने डेंगू से निपटने के लिए साढ़े चार करोड़ मांगे और केंद्र ने सिर्फ एक करोड़ 71 लाख रुपये देकर अपना काम पूरा मान लिया. 1996 से 2015 के बीच डेंगू से निपटने के लिए कुल मात्र 30 करोड़ रुपये खर्च किये गये.
डेंगू के चलते देश का हाल अस्पतालों को लेकर है क्या, यह इससे भी समझा जा सकता है कि जहां चीन और रूस में हर दस हजार लोगों पर 42 और 97 बेड होते हैं, वहीं भारत में प्रति दस हजार जनसंख्या पर महज 9 बेड हैं. फिर दिल्ली जैसी जगहों पर सरकार का ही नजरिया बीमारी से निपटने का क्या हो सकता है, यह भी किसी बिगड़े हालात से कम नहीं है. मसलन राष्ट्रपति भवन, सफदरजंग एयरपोर्ट, देश का नामी अस्पताल एम्स और गृह मंत्रालय और इस कतार में दिल्ली के 50 से ज्यादा अहम स्थान और भी हैं. वित्त मंत्रालय भी है और दिल्ली का राममनोहर लोहिया अस्पताल भी. दिल्ली के तीन सिनेमाघर भी हैं. इन सभी को दिल्ली म्यूनिसिपल काॅरपोरेशन ने नोटिस दिया है कि इन जगहों पर डेंगू मच्छर पनप सकते हैं. मुश्किल तो यह है कि नोटिस एक-दो नहीं, बल्कि दर्जनों नोटिस हर संस्थान को दिये गये. राष्ट्रपति भवन का परिसर इतना बड़ा है कि नोटिस की संख्या 90 तक पहुंच चुकी है. तो सवाल है कि जब हाइकोर्ट ने केंद्र सरकार से लेकर दिल्ली सरकार और एनडीएमसी से लेकर एमसीडी को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है, तो दो हफ्ते बाद यह सभी क्या जवाब देंगे?
बीते बीस बरस में दिल्ली की जनसंख्या भी दोगुनी हो गयी है. सुविधाएं उतनी ही कम हुई हैं. दिल्ली में डेंगू का इलाज भी कैसे धंधे में बदल चुका है, यह भी डेंगू को लेकर सरकारी रुख से ही समझा जा सकता है. डेंगू फैलते ही पहले 15 दिन जांच और इलाज ज्यादा पैसे देने पर हो रहा था. फिर दिल्ली सरकार कड़क हुई. नियम-कायदे बनाये गये. तो धंधा और गहरा गया. क्योंकि बीमारी फैल रही थी. हर दिन दो सौ से बढ़ कर पांच सौ तक केस पहुंच गये. और दिल्ली सरकार की इलाज कराने की अपनी सीमा और सीमा के बाहर नकेल कसने की भी सीमा. फिर इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसा कि हर अस्पताल के सामने मरीज और उसके परिजन हाथ जोड़ कर ही खड़े हो सकते हैं. दिल्ली में जब डेंगू नहीं था, तब भी अस्पतालों के बेड खाली नहीं थे. और जब डेंगू फैला हो, तो सिर्फ बेड पर ही नहीं, बल्कि अस्पताल के गलियारे तक में जमीन पर लेटा कर इलाज चल रहा है.
दुनिया के तमाम देशों की राजधानियों को परखें, तो सिर्फ दिल्ली में कम-से-कम चार हजार बेड अस्पतालों में और होने चाहिए. डेंगू से निपटने के लिए सालाना बजट 90 करोड़ का अलग से होना चाहिए. डेंगू से निपटने के लिए सिर्फ मौजूदा वक्त में ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के दौर में किसी सरकार का नजरिया डेंगू को थामनेवाला रहा नहीं. जितना मांगा गया उतना दिया नहीं गया. जितना दिया गया उतना भी खर्च हो नहीं पाया. मसलन 2013-14 में मांगा गया 11.41 करोड़, लेकिन मिला 3.56 करोड़. पिछले बरस यानी 2014-15 में मांगा गया 4.54 करोड़ और मिले 70 लाख. वही अब यानी 2015-16 में मांगे गये 4.23 करोड़ और मिले 1.71 करोड़.
समूचे देश में केंद्र सरकार से लेकर तमाम राज्य सरकारों के स्वास्थ्य सेवा के बजट से करीब दोगुना खर्च देश के ही लोग इलाज के लिए देश के बाहर कर देते हैं. इन सब आंकड़ों के बीच या कहें कि डेंगू के कहर के बीच दिल्ली में पीएम का स्वच्छता अभियान हो या केजरीवाल का वाइ-फाइ का सपना, दोनों ही कटघरे में खड़े नजर आते हैं. फिर दिल्ली में स्वास्थ्य को लेकर बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर कैसे हो, इस पर दाेनों एक-साथ बैठ कर चर्चा तक नहीं कर पाये हैं.
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
punyaprasun@gmail.com

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