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थोड़े में ही बहुत कुछ कहनेवाला कथाकार

जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार साल 2015, उर्दू के सदाबहार अफसानानिगार राजिंदर सिंह बेदी का जन्मशती साल है. उर्दू कथा साहित्य बेदी के नाम के बिना खत्म हो जाये, ऐसा मुमकिन नहीं है. दिलचस्प कथाशैली और अलग अंदाज की वजह से बेदी उर्दू कथाकारों में अलग से ही पहचाने जाते हैं.बेदी के कथा-साहित्य में जन-जीवन के […]

जाहिद खान
स्वतंत्र टिप्पणीकार
साल 2015, उर्दू के सदाबहार अफसानानिगार राजिंदर सिंह बेदी का जन्मशती साल है. उर्दू कथा साहित्य बेदी के नाम के बिना खत्म हो जाये, ऐसा मुमकिन नहीं है.
दिलचस्प कथाशैली और अलग अंदाज की वजह से बेदी उर्दू कथाकारों में अलग से ही पहचाने जाते हैं.बेदी के कथा-साहित्य में जन-जीवन के संघर्ष, आशा-निराशा, मोह भंग और भीतर-बाहर की विसंगतियों पर सशक्त रचनाएं मिलती हैं. थोड़े में बहुत कुछ कह जाना बेदी की खासियत थी.
एक सितंबर, 1915 में अविभाजित भारत के लाहौर में जन्मे बेदी की मातृभाषा पंजाबी थी, लेकिन उनका समूचा लेखन उर्दू में मिलता है. उर्दू के पंजाब में पैदा होने की वजह से और इसके मुहावरे की पंजाबी के साथ समानता देखते हुए बेदी ने कहा था कि इसका नाम ‘पंजुदरू’ होना चाहिए.
बेदी पहले डाक-तार विभाग में क्लर्क रहे और फिर साल 1958 में आल इंडिया रेडियो, जम्मू के निदेशक पद पर भी रहे. इसके बाद वे पूरी तरह से स्वतंत्र लेखन और फिल्म लेखन के क्षेत्र में आ गये. बेदी ने लेखक और फिल्मकार के रूप में खासी मकबूलियत पायी.
1936 में बेदी की पहली कहानी ‘महारानी का तोहफा’ ‘अदबी दुनिया’ पत्रिका के सालाना अंक में प्रकाशित हुई. इस कहानी प्रकाशन के तीन साल बाद यानी 1939 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘दाना-ओ-दाम’ प्रकाशित हुआ.
इस कहानी संग्रह से उनका नाम उर्दू के तरक्कीपसंद अफसानानिगारों की फेहरिस्त में शुमार होने लगा. सआदत हसन मंटो, कृशन चंदर की तरह बेदी के अफसानों के भी चर्चे होने लगे. ‘गरहन’, ‘कोखजली’, ‘अपने दुख मुङो दे दो’, ‘हाथ हमारे कलम हुए’ आदि बेदी के अन्य कहानी संग्रह हैं. उर्दू में ही नहीं, बल्कि हिंदी में भी उनकी किताबों के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं.
बेदी की कहानी कला की एक अहम खासियत यह थी कि उन्होंने नैरेटिव की तकनीक को सोचनेवाली तकनीक में बदला.
यानी बेदी की कहानी को पढ़ते हुए आप सिर्फ वही सोच सकते हैं, जो वे चाहते हैं या कहानी के माध्यम से देना चाहते हैं. बेदी ने सिर्फ एक उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ लिखा और वह भी मील का पत्थर साबित हुआ. 1962 में प्रकाशित इस उपन्यास को 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस पर बाद में एक फिल्म भी बनी.
एक बार सआदत हसन मंटो ने बेदी को एक खत लिखा. ‘बेदी! तुम्हारी मुसीबत यह है कि तुम सोचते बहुत ज्यादा हो. मालूम होता है कि लिखने से पहले सोचते हो, लिखते हुए सोचते हो और लिखने के बाद भी सोचते हो.’
बहरहाल अब बारी बेदी की थी. मंटो को लिखा, ‘मंटो, तुममें एक बुरी बात है और वह यह कि तुम न लिखने से पहले सोचते हो और न लिखते वक्त सोचते हो और न लिखने के बाद सोचते हो.’ इसके बाद मंटो और बेदी में खतो-किताबत बंद हो गयी.
बाद में पता चला कि उन्होंने बेदी की तनकीद का उतना बुरा नहीं माना, जितना इस बात का कि वे लिखेंगे खाक, जब शादी से परे उन्हें किसी बात का तजरबा ही नहीं! बेहतरीन कथाकार, संवाद लेखक राजिंदर सिंह बेदी 1984 में इस दुनिया को अलविदा कह गये.

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