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सार्वजनिक जीवन में भद्रता का अभाव

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा श्रीराम का एक गुण यह भी है कि वे भद्र हैं. क्रोध और अवसाद से परे उनका स्वभाव है. शालीनता और भ्रदता के वे पर्याय हैं. भद्र होना बड़ा कठिन है. यह भाव ओढ़ा नहीं जा सकता. मीडिया के सामने वाली कृत्रिमता भद्रता से दूर-दूर तक भी तुलना योग्य नहीं […]

तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
श्रीराम का एक गुण यह भी है कि वे भद्र हैं. क्रोध और अवसाद से परे उनका स्वभाव है. शालीनता और भ्रदता के वे पर्याय हैं.
भद्र होना बड़ा कठिन है. यह भाव ओढ़ा नहीं जा सकता. मीडिया के सामने वाली कृत्रिमता भद्रता से दूर-दूर तक भी तुलना योग्य नहीं ठहरती. वाणी में शबद-संयम और लेखन में भद्रता तभी आ पाती है, जब भीतर कुछ उसका अंश हो.
इन दिनों स्पर्धा-सी चल पड़ी है अभद्र होने की. सोशल मीडिया पर तो इसकी इंतिहा हो रही है. जिसके पास कुछ भी नहीं है देने को, जो भीतर से खोखला, कायर और कमजोर है, जिसके अंतस में केवल कलुष है, वह गाली-गलौज और मिथ्यालाप पर उतर जाता है.
कानून होंगे ऐसी अभद्रता पर रोक लगाने या दंडित करने के लिए, पर उनकी प्रक्रिया की साख इस कदर संदिग्ध हो चुकी है कि आमतौर पर लोग कड़वा घूंट पीकर चुप हो रहते हैं.
इस अभद्रता की स्पर्धा में कोई वैचारिक सीमांत नहीं होता. सब ओर, सब रंग है यह व्याधि. भीतर कहीं इतनी गहरी रुग्णता पैठी होती है कि मवाद बह निकलता है.
अटलजी, प्रधानमंत्री के रूप में और पहले भी, काफी अधिक भद्रता के आग्रही थे. संसदीय व्यवहार में सुधार, पत्रकारिता की भाषा में विद्रूपता पर अंकुश, सार्वजनिक संवाद में आक्रोश की तीव्र अभिव्यक्ति को भी निजी हमलों से परे रखते हुए शब्द-संयम न तोड़ना, उनके मन की विशेषताएं रहीं. वे असंदिग्ध तौर पर शब्द भद्र कहे जा सकते हैं.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय, नानी पालकीवाला, हीरेन मुखर्जी, पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी, लालबहादुर शास्त्री, पीए संगमा, हाल ही में दिवंगत हुए सपा के मोहन सिंह, वाणी संयम और शब्द भद्रता के कुछ अचानक याद आये नाम हैं, जिनमें और अनेक नाम जोड़े जा सकते हैं.
वर्तमान संसद में भी, प्राय: सभी दलों में ऐसे सुपठित, सुसंस्कृत और भद्रजन मिलेंगे- लेकिन दुख यही है कि उनका दखल और प्रभाव शोर की राजनीति से कमतर ही दिखता है.
अब सिर्फ शोर सुर्खियां बनाते हैं. कुछ भी ऐसा कहा जाये, जो अगले दिन कहीं कुछ खबर बना दे, तो जीवन धन्य प्रतीत होता है.
चीखिए, चिल्लाइए, दूसरे की बात सुनने से इनकार करिये, अपनी बात सब सुनें- ऐसा कोलाहल भरा नाद गुंजाइए- अहा हा! कितना सुख, कितनी तृप्ति का अहसास होता है. तर्क-पंडित अपने शोर, अपनी अराजकता, अपने तीक्ष्ण, मर्माहत करनेवाले शब्द-बाणों की प्रतिध्वनि से आह्लादित और कृतार्थ हुआ ही महसूस करते हैं.संसद चलने नहीं देंगे, क्योंकि शोर मचाना है.
किसी भी दूसरे की बात में कोई अच्छाई ढूंढ़ने की कोशिश नहीं करेंगे, क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि हमारे सिवाय कोई अच्छा हो ही नहीं सकता. किसी भी विभाग, मंत्रलय या व्यक्ति की अच्छाइयों को देख नहीं सकते, क्योंकि हमें सिर्फ बुराई ढूंढ़नी है. हम मिस मेओ की तरह कट्टरपंथी दृष्टि अपनाये हुए ही सार्वजनिक जीवन में नया प्रकाश फैलाना चाहते हैं.
हम चाहते हैं कि हर कोई हमें पढ़े और हमें देखे, भले ही उसके लिए हमें अपनी जुबान और चेहरे को खराब क्यों न करना पड़े. कुछ तो ऐसी बात कहें जो ‘आइ बाल्स कैच करे’ यानी लोगों की निगाहें अपनी ओर खींचे, क्योंकि अब जिंदगी सिर्फ इतनी ही बची है कि मीडिया में हम किसी न किसी बहाने उपस्थित हो जाया करें या सोशल मीडया में हमारे अनुयायी बढ़ते रहें.
इसके लिए अभद्रता का सहारा बड़ा सरल होता है. नाम कमाने का शार्टकट बन गयी है अभद्रता. इतना शोर मचाने लग गये हैं कि विवेक ही उसमें नहीं दब गया, बल्कि शोर का जो पहले प्रभाव हुआ करता था, वह भी समाप्त हो गया. सही बात कहनेवाले हैं पर अतिशय शोर से उपजे सन्नाटे में सही बात निर्वात में दीप जलाने जैसे असंभव हो जाती है.
मैंने अपने मित्रों से संसद में कहा कि संभव है कुछ बातें, कुछ विभागों और मंत्रलयों के काम आपको अच्छे नहीं लगते हों, कुछ न्यासों के प्रमुख भी अच्छे नहीं लगते हों. पर कभी-कभी सत्ता से वानप्रस्थ का सुख प्राप्त करने का भी मन बनाना चाहिए.
हमारा सारा जीवन सिर्फ कटुता और वैमनस्य में बीते, यह भी ठीक नहीं है.
अपनों का तिरस्कार जीवन भर दुख देता है और जब सत्ता साथ हो, तो फिर तौबा ही है- अहं और रोब-दाब. स्वाभाविक ही है. सूचियां बनाने और सूचियों में नाम डालने-हटाने का स्तालिनवादी गुण आज आम करेंसी का नोट है.
चलता है. फर्क पता नहीं होने देता. इसलिए संपादक विहीन होते जा रहे पत्रकारिता और भद्रता-शून्य होते जा रहे सार्वजनिक जीवन में कुछ ऐसे हठयोगी तो चाहिए, जो अपनी जिद से टलें न. राजनीतिक अखाड़ेबाजी, धन, प्रभाव, चुनावी-जीत के आंकड़ों से अपने रास्ते बदल कर कब यू-टर्न ले ले, कब अपने ही शब्द अपरिचित बना दे और देवताओं को अनाथ कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन सिर्फ ये जो टिके रहेंगे, वहीं जियेंगे और वही देश के जीवन का आधार बनेंगे.
जो हर दिन सालों-साल हर अखबार के पहले पन्‍नों पर अपने पद और प्रभाव के कारण छपते रहे, वे अब तक अमर हो चुके होने चाहिए थे. जिनके वैभव और हुक्म का डंका सागर पर तक बजता रहा, वे जन-मन में छाये हुए दिखने चाहिए थे. पर ऐसा होता नहीं.
वह प्रकृति का नियम ही नहीं है. नियम यह है कि जिसने भद्रता दिखायी, जो मंद बयार की तरल मिठास से लय बन पाया, वह भले ही किसी पद या प्रभाव का प्रभु न भी रहा हो, सबको अपना बना गया, सबका अपना हो गया.
मोसों कहां सीकरी सों काम- किसी ने कहा होगा, अकबर का न्योता न माना होगा, तो अमर हो गये. स्वामी हरिदास का नाम उन मनसबदारों, सूबेदारों, क्षत्रपों, अधिपतियों से बड़ा ही होगा, जो अभद्रता और अहंकार में सिमट गये.
अब्दुर्रहीम खानखाना की भद्रता के आगे बड़े-बड़े दानदाता छोटे पड़ गये- ‘देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन, लोग भरम मांपे करें, तासे नीचे नैन’ कहनेवाले रहीम पर करोड़ों भक्त न्योछावर.
भीतर भद्रता का निस्सीम सागर था, वही जो हमने अब्दुल कलाम साहब में देखा. यह भद्रता किसी का बुरा नहीं सोच सकती.
किसी दूसरे का बुरा करके, किसी के प्रति प्रतिशोधी अतिरेकी व्यवहार से न समाज का कभी भला हो पाया, न व्यक्तियों का.
भद्रता की विजय चिरस्थायी होती है- जैसे भाई कन्हैया की, जिन्होंने घायल दुश्मनों को भी पानी पिलाया. खड्ग शूर से शब्द-भद्र होना अधिक कठिन ही नहीं, अधिक बड़ा होना भी है.

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