मशहूर फिल्मकार बिमल रॉय ने कभी कहा था कि सिनेमा व्यक्ति की जिम्मेवारियों और संभावनाओं को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण साधन है. इसी तर्ज पर यह भी कहा जा सकता है कि सिनेमा किसी समाज की संवेदनशीलता और रचनात्मकता के आकलन का भी बड़ा आधार है.
इस शुक्रवार को प्रदर्शित फिल्म ‘मसान’ और पिछले तीन हफ्ते से दर्शकों को लुभा रही ‘बाहुबली’ इस संदर्भ में विशिष्ट उदाहरण हैं. बनारस शहर के निम्नवर्गीय बाशिंदों की कथा ‘मसान’ छोटे बजट की फिल्म है और एक-दो को छोड़ कर इसके कलाकार, लेखक और टेक्नीशियन या तो नये हैं या इससे पहले साधारण बजट की गिनी-चुनी फिल्मों में काम कर चुके हैं.
निर्देशक नीरज घेवन की यह पहली फिल्म है. गत मई महीने में आयोजित दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोह ‘कान’ में इस फिल्म को बेहतरीन पहली फिल्म का सम्मान और फिल्म समीक्षकों द्वारा दिया जानेवाला पुरस्कार मिला था.
कान में पहले भी भारतीय फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं और कुछ को सम्मान भी मिला है, परंतु ‘अनसर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में पुरस्कार जीतनेवाली यह पहली फिल्म है. इससे पहले कान में 1988 में मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ को दो पुरस्कार मिले थे तथा 1999 में मुरली नायर की ‘मरण सिंहासनम’ ने एक पुरस्कार हासिल किया था. बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ बंबई फिल्म उद्योग से इस प्रतिष्ठित फिल्म समारोह (1954) में पुरस्कृत होनेवाली अंतिम हिंदी फिल्म थी.
इसके बरक्स तेलुगु सिनेमा के स्थापित निर्देशक एस राजमौली की ‘बाहुबली’ दक्षिण भारतीय सिनेमा के मंजे और नामी कलाकारों और तकनीशियनों के साथ बनी है तथा देश के सिनेमाई इतिहास की सबसे बड़े बजट की फिल्म है.
तमिल, तेलुगु, मलयालम और हिंदी में एक साथ प्रदर्शित हुई इस फिल्म ने कमाई के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं. साथ ही अपनी भव्यता और तकनीकी उत्कृष्टता से इसने विदेशों में भी कामयाबी के झंडे गाड़े हैं. देशी-विदेशी समीक्षक दृश्यात्मक प्रस्तुति के स्तर पर इसे हॉलीवुड की अब तक की सबसे शानदार फिल्मों से भी बेहतर बता रहे हैं.
बजट, प्रस्तुति और कथानक में दो विपरीत छोरों पर खड़ी इन दो फिल्मों की उपलब्धियां भारतीय सिनेमा में एक नये दौर के आमद की सूचना दे रही हैं, साथ ही उन खामियों की ओर संकेत भी कर रही हैं जिनकी वजह से हमारा फिल्म उद्योग संख्या में वृहत होने के बावजूद गुणवत्ता में लचर बना हुआ है.
देश में सिनेमा न सिर्फ मनोरंजन का प्रमुख जरिया है, बल्कि भारतीय वर्तमान का सांस्कृतिक दस्तावेज भी है. लेकिन, दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग होने के बावजूद भारतीय सिनेमा कथानक, तकनीक, प्रयोगधर्मिता और वैविध्य के स्तर पर वैश्विक परिदृश्य में अपेक्षित मुकाम हासिल नहीं कर सका है.
हालांकि सिनेमा के आगमन के समय से ही कुछ फिल्मकार साधनों और व्यवसाय की सीमाओं का अतिक्रमण करते रहे हैं, परंतु मुख्यधारा की फिल्में आमतौर पर सतही मनोरंजन के उद्देश्य घिसे-पिटे फॉर्मूलों पर ही बनती रही हैं. संतोष की बात है कि तकनीक की उपलब्धता, फिल्म निर्माण और वितरण की रूपरेखा में तब्दीली तथा दर्शकों के बदलते रुझानों की पृष्ठभूमि में पिछले एक दशक से कथानक और प्रस्तुति में उल्लेखनीय प्रायोगिक तेवर उभरे हैं, जिन्होंने मुख्यधारा से अलग राह बनाने की कोशिश की है.
अनुराग कश्यप (देव डी, गुलाल, गैंग्स ऑफ वासेपुर), दिबाकर बनर्जी (खोसला का घोंसला, शंघाई), तिग्मांशु धूलिया (पान सिंह तोमर), सुजॉय घोष (कहानी), विक्रमादित्य मोटवानी (उड़ान, लुटेरा), आनंद गांधी (शिप ऑफ थिसियस), रितेश बत्र (लंचबॉक्स) आदि कुछ प्रमुख निर्देशक हैं, जो इस प्रक्रिया की अगुवाई कर रहे हैं.
उधर, हिंदी सिनेमा से इतर मराठी, मलयालम, पंजाबी, बंगाली आदि भाषाओं में भी अब खूब प्रयोग हो रहे हैं, जिन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं और समीक्षकों की सराहनाएं भी. सृजित मुखर्जी (ऑटोग्राफ, जाटिश्वर, चोतुष्कोणो), अविनाश अरुण (किल्ला), अनूप सिंह (किस्सा), चैतन्य तम्हाणो (कोर्ट), गुरविंदर सिंह (अन्हे घोड़े दा दान, चौथी कूट) आदि युवा फिल्मकार नयी भाषा गढ़ने के साथ हमारे सिनेमा की संभावनाओं की सीमा को भी विस्तार दे रहे हैं.
फिल्मकारों की यह पौध सामाजिक सच्चाइयों को हमारे सामने रख कर हमें भावनात्मक रूप से समृद्ध कर रही हैं, वहीं उनकी सृजनात्मक कल्पनाओं के जरिये हम अनुभव के अनजान क्षितिजों का स्पर्श कर रहे हैं.
भारतीय सिनेमा का यह नया दौर कथाओं और कलाओं से भरपूर हमारी संस्कृति को सतही फॉर्मूलों की कैद से मुक्त होने की जद्दोजहद है; मनोरंजन के उत्कृष्ट होने और आर्थिकी के परिष्कार का प्रयास है. यह अभिनंदनीय है, शुभ है.