क्रिकेट की तरह ही राजनीति की जंग में भी टाइमिंग का निर्णायक महत्व है. आप कितने भी धुरंधर बल्लेबाज हों, गेंद को सही वक्त पर बल्ले पर लेकर सही दिशा में शॉट नहीं लगा सके, तो आउट होने की नौबत किसी भी गेंद पर आ सकती है. इसी तरह आप चाहे जितने अनुभवी गेंदबाज हों, गेंद को सही लाइन-लेंग्थ पर रख कर बल्लेबाज को नहीं छका सके, तो आपकी गेंदबाजी के धज्जी उड़ने का खतरा हर ओवर में बना रहेगा.
इस तथ्य के आइने में जरा राजनीति की जंग में कांग्रेस की गति-मति को देखें. सत्ता की क्रीज से बाहर हुए उसे साल भर से ज्यादा हो गये, लेकिन विपक्षी पार्टी के रूप में उसने अब तक एक भी गेंद ऐसी नहीं डाली है, जिससे सत्ताधारी पार्टी की गिल्लियां बिखरती लगें.
भूमि अधिग्रहण बिल के मुद्दे पर हुई नीति आयोग की बैठक में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के शामिल नहीं होने की बात हो, या संसद के आगामी सत्र में विरोध को लेकर कांग्रेस के भीतर की जा रही तैयारियों की खबरें, दोनों ही से जान पड़ता है कि कांग्रेस विपक्षी पार्टी के रूप में विरोध का सही लाइन-लेंग्थ ढूंढ़ने में अब तक नाकामयाब रही है. नीति आयोग की बैठक में कांग्रेस शासित नौ प्रदेशों के मुख्यमंत्री नहीं पहुंचे. वैसे बैठक में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश और ओड़िशा के मुख्यमंत्री भी नहीं पहुंचे थे, लेकिन कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों का न पहुंचना संख्याबल के लिहाज से विशेष मायने रखता है.
कांग्रेस आलाकमान को शायद लगा होगा कि भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर होनेवाली बैठक में उसके मुख्यमंत्रियों के नहीं पहुंचने संदेश जायेगा कि पार्टी बिल में एनडीए द्वारा प्रस्तावित बदलावों के विरुद्ध है. कांग्रेस शासित उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा भी कुछ ऐसा ही. बैठक में शामिल नहीं होने को लेकर उनका उत्तर था कि ‘भूमि अधिग्रहण बिल पर चर्चा करने का क्या फायदा है?
हमारी पार्टी का रुख पहले से साफ है कि 2013 में संसद ने जो भूमि अधिग्रहण बिल पास किया था, उसे बनाये रखा जाये.’ परंतु, ऐसा सोचते वक्त कांग्रेस आलाकमान शायद अपने फायदे की दो बातों को नजरअंदाज कर गया. पहली, कांग्रेस आलाकमान को याद होना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों को लेकर जब पार्टी ने किसानों के बीच राहुल गांधी के दौरे की शक्ल में अपना रुख कड़ा करना शुरू किया, तभी आरटीआइ की एक अर्जी से खुलासा हुआ था कि कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को भूमि अधिग्रहण संबंधी कानून में बदलाव को लेकर हुई पूर्ववर्ती बैठक में कोई विशेष शिकायत नहीं थी. ऐसे में कांग्रेसी मुख्यमंत्री अगर नीति आयोग की बैठक में शामिल होकर भूमि अधिग्रहण बिल में प्रस्तावित बदलावों पर ऐतराज जताते तो संदेश जाता कि उन्होंने नये सिरे से सोचा है और वे अपने बदले हुए रुख को लेकर गंभीर हैं.
दूसरी, बैठक में कांग्रेस शासित मुख्यमंत्रियों का भाग न लेना एक तरह से कांग्रेस के लिए मौका गंवानेवाली बात भी है. अगर पार्टी के मुख्यमंत्री एक स्वर से कुछ तर्क रखते तो माना जाता कि कांग्रेस भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों को लेकर एतराज जतानेवाले अन्य दलों के साथ है और एक तरह से उनकी अगुवाई कर रही है. संक्षेप में कहें तो नीति आयोग की बैठक में भाग न लेना एक मौका गंवाने जैसा है.
इस बीच आगामी संसद सत्र को लेकर कांग्रेस के भीतर से तैयारियों के बारे जो खबरें आ रही हैं, उनसे भी लगता है कि पार्टी एनडीए के खिलाफ अपनी सही लाइन-लेंग्थ नहीं ढूंढ़ पायी है. मॉनसून सत्र में कांग्रेस का इरादा कुछेक मुद्दों पर विरोध जताने और आक्रामक दिखने का है. ललित मोदी प्रकरण से उपजे वसुंधरा और सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की चुप्पी की बात को कांग्रेस मॉनसून सत्र में पुरजोर तरीके से उठाना चाहती है.
लेकिन, बात हंगामे के जरिये कोई मुद्दा उठाने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए. मुद्दा उठानेवाले में जवाब सुनने का धीरज भी होना चाहिए, साथ ही कोशिश होनी चाहिए कि संसद विचार-विमर्श के जरिये उस मुद्दे पर किसी सहमति तक पहुंच सके. फिलहाल कांग्रेस का रुख इससे अलग जान पड़ता है. उसके एक नेता ने कहा है कि ‘यदि भाजपा और संघ को लगता है कि बेनकाब हो चुके उनके मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे की न्यायोचित मांग पर कान बंद करने और हठधर्मिता पर अड़े रहने से विपक्ष हथियार डाल देगा, तो वे गलत हैं.’
यह भाषा संसद को चलने देने की नहीं, संसदीय चर्चा को ठप्प कर देने की मंशा से प्रेरित जान पड़ती है. ऐसा करने से यही जाहिर होगा कि कांग्रेस सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने के बजाय संसद में खबर बनने लायक कुछ दृश्य भर पैदा करना चाहती है.
अच्छा होता, अगर सौ साल के अपने इतिहास का दावा करनेवाली पार्टी अपने महान नेताओं के विरोध के तौर-तरीकों पर गौर करती और सकारात्मक विरोध का कोई ऐसा मुहावरा गढ़ती, जिससे देश का आम आदमी भी जुड़ सके.