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उम्मीद का क्या है कुछ भी बांध लो!

आलोक पुराणिक चर्चित व्यंग्यकार बरसात-मॉनसून का हाल उस स्टूडेंट की तरह का हो लिया है, जिसे सब निकम्मा मान रहे थे लेकिन वह टॉपमटॉप आ गया. सरकारी मौसम विभाग बता रहा था कि मॉनसून के औसत से 12 परसेंट कम यानी करीब 88 परसेंट आने का अनुमान है, लेकिन यह आ लिया अब तक 120 […]

आलोक पुराणिक

चर्चित व्यंग्यकार

बरसात-मॉनसून का हाल उस स्टूडेंट की तरह का हो लिया है, जिसे सब निकम्मा मान रहे थे लेकिन वह टॉपमटॉप आ गया. सरकारी मौसम विभाग बता रहा था कि मॉनसून के औसत से 12 परसेंट कम यानी करीब 88 परसेंट आने का अनुमान है, लेकिन यह आ लिया अब तक 120 परसेंट. सरकारी अनुमानों के सहारे चलो, तो सूखे के लिए तैयार पानी भरी लुटिया बाढ़ के पानी में डूब जाती है.

इधर मैं एक सरकारी दफ्तर में सूखा नियंत्रण कक्ष का बोर्ड लगा देख रहा था कि उधर पूरे शहर में बाढ़ का सा सीन पैदा हो लिया. सरकार जब सूखे से निपटने की तैयारी करे, तब बाढ़ आ जाती है. उम्मीदें हैं, अनुमान हैं, जो सरकार के कभी सही नहीं लगते.

उम्मीदों का तो यह है कि जो चाहे लगा लो. मेरा एक अमेरिकी कवि मित्र बताता है कि जैसे ही बारिश आती है, कविता का मूड बन जाता है. कविता भी बरसेगी, ऐसी उम्मीद बंध जाती है. लेकिन, इंडिया पिछड़ा देश है, यहां बारिश में कवि भी कविता की नहीं, पकौड़ी की ही उम्मीद बांधता है.

पकौड़ी कविता से ज्यादा काम की चीज है, ऐसा आम तौर पर माना जाता है, पर यह बात कवि खुद भी बरसात के दिनों में मान लेता है. मेरे जैसा नॉन-कवि आम आदमी बरसात के फौरन बाद महंगी सब्जी की उम्मीद बांधता है, और यह उम्मीद सब्जीवाले कभी नहीं तोड़ते, बल्कि उम्मीद से कुछ ज्यादा ही डिलीवर करते हैं.

वैसे उम्मीद का क्या है, कुछ भी बांध लो. शायर सुदर्शन फाकिर साहब ने कहा है- ‘हम तो समङो थे के बरसात में बरसेगी शराब, आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया.’ अब बरसात से शराब की उम्मीद अगर शायर की पूरी हो जाये, तो दारु बनानेवाले बड़े उद्योगपति तो और भी परेशानियों में आ जाएंगे. खैर, नॉन-शायर आम आदमी तो बरसात में महंगी सब्जियों और पकौड़ों में ही झूलता रहता है.

अरविंद केजरीवालजी इस मौसम में चंदे की उम्मीद बांध रहे हैं. उनसे लोग हर आइटम मुफ्त लेने की उम्मीद बांधते हैं. केजरीवालजी सबसे ज्यादा नेचुरल पोज में तब ही लगते हैं, जब वह कोई चीज मुफ्त देने का वादा कर रहे होते हैं और लगे हाथों चंदा मांग रहे होते है.

वैसे नेचुरल पोज में, जब पीएम कुछ लांच करके बहुत कुछ बोल रहे होते हैं या राहुल गांधी साप्ताहिक या मंथली बेसिस पर जनता से मिल रहे होते हैं. वैसे ही नेचुरल पोज में, जब लालूजी कह रहे होते हैं कि मेरे बच्चे मंत्री क्यों नहीं बनेंगे. वैसे ही नेचुरल पोज में, जब जीतनराम मांझी कह रहे होते हैं कि मैं मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनूंगा. वैसे ही नेचुरल पोज में, जब आइपीएल में कुछ क्रिकेट टीमों के बैन होने पर उनके खिलाड़ी कह रहे होते हैं-ओय क्रिकेट वगैरह रुक जाये, कोई बात नहीं, बस तेल-साबुन बेचने के मेरे मॉडलिंग कांट्रैक्ट ना रुक जायें.

उधर से खबर आ रही है कि बाहुबली बहुत धुआंधार तरीके से चल रही है, साऊथ में. साऊथ-इंडिया में बाहुबली चलती है, नार्थ-इंडिया में एक नहीं, कई बाहुबली चलते हैं सुपर-धुआंधार तरीके से, कुछ तो चल कर मंत्री पद तक पहुंच लेते हैं. इसलिए नार्थ वाले बाहुबली के चलने पर ज्यादा हैरतमंद नहीं होते.

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